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रत्नाकर शतक
अवस्थाएँ क्रमानुसार होती हैं, जीव उन्हें जानता है पर करता कुछ नहीं है। जब जीव को अपने स्वरूप का पूर्ण निश्चय हो जाता है, अपने ज्ञाता-द्रष्टा स्वभाव को जान लेता है तो अपनी ओर झुक जाता है। निमित्त या सहकारी कारण इस आत्मा को अपने विकास के लिये निरन्तर मिलते रहते हैं। अतः भेदविज्ञान की अोर अवश्य प्रवृत्त होना चाहिये ।
तनुर्वे ताम्र निवासमो मळल वेटोळतोडि बोडं वरुळमनमोल्दिप बोलिंदो नाळे यो तोडके नालिदो ईगळेो । धन दोड्डेबवोलोड्डियोड्डळिवमेय्योळ्मोसा वेकिर्दपै ।
नेनेदिर्जीवने मेलेनेदरुपिदै ! रत्नाकराधीश्वरा! ॥१३।। ई रखाकराधीश्वर !
यह शरीर क्या ताम्बे के द्वारा निर्मित घर है ? बालू के पहाड़ पर मकान बनाकर यदि कोई मनुष्य उस मकान से ममता करे तो उसका यह पागलपन होगा। इसी प्रकार नाश होनेवाले बादलों के समान इस क्षणभंगुर शरीर पर मोहग्रस्त जीव क्यों प्रेम करता है ? मोह को छोड़ कर जीव अात्म तत्व का चिन्तन करे; हे प्रभो ! आपने ऐसा समझाया ॥१३॥
विवेचन-इस संसारी पाणी ने अपने स्वभाव को भूलकर पर पदार्थों को अपना समझ लिया है, इससे यह स्त्री, पुत्र, धन, दौलत और शरीर से प्रेम करता है. उन्हें अपना समझता है।
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