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रत्नाकर शतक
कारक है, वही वस्तु दूसरे समय में दुःवोत्पादक कैसे हो जाती है ? पर संयोग से उत्पन्न सुखाभास दुःखरूप ही है। खाने, पीने, सोने, गप्प करने, सैर करने, सिनेमा देखने, नाच-गाना देखने एवं स्त्री-सहवास आदि से जो सुखोत्पत्ति मानी जाती है, वह वस्तुतः दुःल है। जैसे शराची नशे के कारण कुत्ते के मूत्र को भी शरबत समझता है, उसी प्रकार मोही जीव भ्रमवश दुःख को मुख मानता है। प्रवचनसार में कुन्दकुन्दाचार्य ने कहा है
सपरं बाधासहिदं विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं ।
इंदिरहि लद्धं तं सोक्खं दुक्खमेव तथा ।
अर्थ-जो इन्द्रियों से होनेवाला सुख है, वह पराधीन है, बाधा सहित है, नाश होनेवाला है, पापबन्ध का कारण है तथा चंचल है, इसलिये दुःखरूप है।
आत्मिक सुख अक्षय, अनुपम, स्वाधीन, जरा-राग-मरण आदि से रहित होता है। इसकी प्राप्ति किसी अन्य वस्तु के संयोग से नहीं होती है। यह तो त्रिकाल में ज्ञानानन्दरूप पूर्ण सामर्थ्यवान् है। अज्ञानता के कारण जीव की दृष्टि जबतक संयोग पर है, दुःख को सुख समझता है; किन्तु जिस क्षण पराश्रित विकारभाव हट जाता है, सुखी हो जाता है । यह सुख कहीं बाहर से नहीं आता, बल्कि उसके स्वरूप स्थित सुख का अक्षय भण्डार खुल जाता है।
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