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रत्नाकर शतक
संसार भावना-- द्रव्य और भावकों के कारण आत्मा ने इस संसार में चौरासी लाख योनियों में भ्रमण किया है। संसार रूपी श्रृंखला से कब मैं छहँगा। यह संसार मेरा नहीं, मैं मोक्ष स्वरूप हूं। इस प्रकार चिन्तन करना संसार भावना है । आचार्य शुभचन्द्र ने इस भावना का वर्णन करते हुए बताया हैश्वभ्रे शूलकुठारयन्त्रदहनक्षारक्षुर व्याहतैः
तिर्यक्षु श्रमदुःखपावकशिखासंसारभस्मीकृतैः । मानुष्येऽप्यतुलप्रयासवशगैर्देवेषु रागोद्धतैः
संसारेऽत्रदुरन्तदुर्गमतिमये बम्भ्रम्यते प्राणिभिः । अर्थ--इस दुर्गतिमय संसार में जीव निरन्तर भ्रमण करते हैं। नरकों में तो ये शुली, कुल्हाड़ी, घानी, अग्नि, क्षार, जल, छूरा, कटारी आदि से पीड़ा को प्राप्त हुए नाना प्रकार के दुःखों को भोगते हैं और तियश्च गति में भूख, प्यास, उष्ण आदि की बाधाओं को सहते हुए अग्नि की शिखा के भार से भस्मरूप खेद
और दुःख पाते हैं। मनुष्य गति में अतुल्य खेद के वशीभूत होकर नाना प्रकार के दुःख भोगते हैं। इसी प्रकार देव गति में राग भाव से उद्धत होकर कष्ट सहते हैं।
तात्पर्य यह है कि संसार का कारण अज्ञान है। अज्ञान माव से परद्रव्यों में मोह तथा राग-द्वेष की प्रवृत्ति होती है, इससे
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