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रत्नाकर शतक
तीसरी उपमा संसार को अन्धकार से दी गयी है। जैसे अन्धकार में प्राणी को कुछ नहीं दिखलायी पड़ता है, इधर- उधर मारा-मारा फिरता है, आंखों के रहते हुए भी कुछ नहीं देख पाता है वैसे ही संसार में अविवेक रूपी अन्धकार के रहते हुए प्राणी चतुर्गतियों में भ्रमण करता है, आत्मा की शक्ति के रहते हुए मोहान्ध बनता है। ____संसार को चौथी उपमा शकटचक्र--गाड़ी के पहिये से दी गयी है। जैसे गाड़ी का पहिया बिना धुरे के नहीं चलता है, उसी प्रकार यह संसार मिथ्यात्व रूपी धुरे के बिना नहीं चलता है। मिथ्यात्व के कारण ही यह जीव जन्म-मरण के दुःख उठाता है। जब इसे सम्यत्त्व की प्राप्ति हो जाती है तो सहज में कर्मों से छूट जाता है।
जीव को संसार से विरक्ति निम्न बारह भावनाओं के चिन्तन से भी हो सकती है। संसार का यथार्थ स्वरूप इन भावनाओं के चिन्तन से अवगत हो जाता है। शरीर और आत्मा की भिन्नता का परिज्ञान भी इन भावनाओं के चिन्तन से होता है।
आचार्यों ने भावनाओं को माता के समान हितैषी बताया है। भावनाओं के चिन्तन से शान्ति सुख की प्राप्ति होती है, आत्मकल्याण की प्रेरणा मिलती है।
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