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विस्तृत विवेचन सहित
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पहली उपमा संसार की समुद्र के समान बतायी है । जैसे समुद्र में लहरें उठती हैं, वैसे ही विषय वासना की लहरें उत्पन्न होती हैं । समुद्र जैसे ऊपर से सपाट दिखलायी पड़ता है, कहीं गहरा होता है और कहीं अपने भँवरों में डाल देता है उसी प्रकार संसार भी ऊपर से सरल दिखलायी पड़ता है, पर नाना प्रकार के प्रपंचों के कारण गहरा है, और मोहरूपी भँवरों में फसाने वाला है । इस संसार में समुद्र की बड़वाग्नि के समान माया तथा तृष्णा की ज्वाला जला करती है, जिसमें संसारी जीव अहर्निश झुलसते रहते हैं ।
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संसार की दूसरी उपमा अग्नि के समान बतायी है, जैसे अग्नि ताप उत्पन्न करती है, आग से जलने पर जीव को बिलबिलाहट होती है उसी प्रकार यह संसार भी जीव को त्रिविधि - दैहिक, दैविक, भौतिक ताप उत्पन्न करता है तथा संसारिक तृष्णा से दग्ध जीव कभी भी शान्ति और विश्राम नहीं पाता है । श्रग्नि जैसे ईधन डालने से उत्तरोत्तर प्रज्वलित होती है उसी प्रकार अधिकाधिक परिग्रह बढ़ाने से सांसारिक लालसाएँ बढ़ती चली जाती हैं। पानी डालने से जिस प्रकार आग शान्त हो जाती है, उसी प्रकार सन्तोष या आत्म-चिन्तन रूपी जल से संसार के संभाव दूर हो जाते हैं ।