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रत्नाकर शतक
हे रत्नाकराधीश्वर !
कपास को पानी में डुबा देने से उस की ऊपर उठनेवाली शक्ति नष्ट हो जाती है। कपास हवा के साथ ऊपर उठने का प्रयत्न करता है पर होता यह है कि उस पर धूल आकर और जम जाती है। इसी प्रकार योग-कषायों के कारण यह आत्मा विकृत हो कर्मरूपी धूल को ग्रहण कर भारी हो जाता है, जिससे शरीर प्राप्त कर नीचे की ओर दबता चला जाता है। भावार्थ यह है कि शुद्ध, बुद्ध और निष्कलंक आत्मा में वैभाविक शक्ति के परिणमन के कारण योग-कषाय रूप प्रवृत्ति होती है, जिस से द्रव्य कर्म ज्ञान वरणादि और नोकर्म शरीर की प्राप्ति होती है। यह शरीर पुनः संसार परिवर्तन का कारण बन जाता है अतः इस परिवर्तन को दूर करने के लिये सोचना चाहिये कि मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ और यह संसार क्या है ? क्या इस प्रकार मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती ? ॥११॥
विवेचन--प्रत्येक व्यक्ति को प्रातः या सायंकाल एकान्त में बैठकर अपने सम्बन्ध में विचार करना चाहिये कि मैं कौन हूँ ? मेरा क्या कर्त्तव्य है ? यह संसार क्या है ? मुझे जन्म-मरण के दुःख क्यों उठाने पड़ रहे हैं ? इस प्रकार विचार करने से व्यक्ति को अपना यथार्थ रूप ज्ञात हो जाता है। वह कर्मों से उत्पन्न विकार और विभाव को अच्छी तरह जान लेता है। शास्त्रों में संसार की चार प्रकार की उपमाएं बतायी गयी हैं, जिनके स्वरूप चिन्तन द्वारा कोई भी व्यक्ति सज्ज्ञान लाभ कर सकता है।
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