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विस्तृत विवेचन सहित
से ही दिव्य पदार्थ भी अस्पृश्य हो गये हैं तो फिर इस शरीर से बड़ा अपवित्र और निन्द्य कौन हो सकता है ? यह मल अपवित्र नहीं, बल्कि अपवित्र यह शरीर है, जिसके संयोग से दिव्य पदार्थों की यह अवस्था हो गयी है ?
इस प्रकार बड़ी देर तक सोच-विचार कर वह मल को छोड़कर गुरु के पास खाली हाथ आया और नत मस्तक हो बोलागुरुदेव, इस संसार में इस शरीर से अपवित्र और निन्द्य कोई वस्तु नहीं। मैंने अनुभव से इस बात को हृदयंगम कर लिया है, अतः अब शुद्ध और पवित्र बनानेवाली दीक्षा दीजिये । गुरु ने प्रसन्न होकर कहा कि अब तुम दीक्षा के अधिकारी हो, अतः मैं दीक्षा दूंगा।
इस उदाहरण से स्पष्ट है कि शरीर के स्वरूप चिन्तन से बोधवृत्ति जाग्रत होती है, अतएव इसके वास्तविक रूप का विचार करना चाहिये।
बूर वारियोळळदिय॒र्ध्वगमनंगेटुर्वियोळिबळ्दु दूब्बारै सल्सुळिगाळियिदुरुळववोल्कर्मगळि नांदु मे ॥ यभारंदाळदुरे कर्ममोयदेडेगे सुत्तित्तिर्णेनंतल्लदानारी संमृतियारो मोक्षकने नां रत्नाकराधीश्वरा ! ॥११॥
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