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रत्नाकर शतक
उपनम-कर्म प्रकृति को उदय में आने के अयोग्य कर देना उपशम है। इस अवस्था में बद्ध कर्म सत्ता में रहता है, उदित नहीं होता।
निधति-कर्म में ऐसी क्रिया का होना जिससे वह उदय और संक्रमण को प्राप्त न हो सके निधति है ।
निकाचना-कर्म में ऐसी क्रिया का होना, जिससे उसमें उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण और उदय ये अवस्थाएँ न हो सकें, निकाचना है। इस अवस्था में कर्म अपनी सत्ता में रहता है तथा अपना फल अवश्य देता है।
इस प्रकार कर्मों के कारण आत्मा इस शरीर में बद्ध रहता है यह स्वयं कर्मों का कर्ता और उनके फल का भोक्ता है। अन्य कोई ईश्वर कर्म फल नहीं देता है। जब इसे तत्त्वों के चिन्तन से शरीर की अपवित्रता का ज्ञान हो जाता है तो यह अपने स्वरूप को समझ कर अपना हित साधन कर लेता है । जो शरीर के अनित्य और अशुचि स्वरूप का चिन्तन करता है, बह विरक्ति पाकर आत्मा की निजी परिणति को प्राप्त हो जाता है। वास्तव में यह शरीर हाड़, मांस, रुधिर, पीव, मल और मूत्र आदि निन्द्य पदार्थों का समुदाय है। नाना प्रकार के रोग भी इसे होते रहते हैं। यदि कुछ दिन इसे अन्न-पानी न मिले
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