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... रत्नाकर शतक
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.. आयु कर्म जीव को किसी निश्चित समय तक मनुष्य, तिर्यञ्च देव और नारकी के शरीर में रोके रहता है। उसके समाप्त या बीच में छिन्न हो जाने से जीव को मृत्य कही जाती है। नाम कर्म के निमित्त से जीव के अच्छा या बुरा शरीर तथा छोटे-बड़े समविषम, सूक्ष्म-स्थल, हीनाधिक आदि नाना प्रकार के अंगोपांग की रचना होती है। गोत्र कर्म के निमित्त से जीव उच्च या नीच कुल में पैदा हुआ कहा जाता है। अन्तराय के कारण इस जीव को इच्छित वस्तु की प्राप्ति में बाधा आती है। इस प्रकार इन पाठों कों के कारण जीव शरीर धारण करता है, इस शरीर में किसी निश्चित समय तक रहता है, सुख या दुख का अनुभव भी करता है। इसे अभीष्ट वस्तुओं की प्राप्ति में नाना प्रकार की रुकावटें भी आती हैं। संसार में इस तरह कर्मों का ही नाटक होता रहता है।
पुरुषार्थी साधक इस कर्म लीला से बचने के लिये अपनी साधना द्वारा उदय में आने के पहले ही कर्मों को नष्ट कर देते हैं। इस कर्म प्रक्रिया के अवलोकन से यह बात भी सिद्ध हो जाती है कि इस संसार का रचयिता कोई नहीं है, किन्तु स्वभावानुसार संसार के सारे पदार्थ बनते और बिगड़ते रहते हैं। ..... जैनागम में मूलतः कर्म के दो भेद बताये हैं-द्रव्य और भाव । मोह के निमित से जीव के राग, द्वेष, क्रोधादि का जो
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