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विवेचन विस्तृत सहित
योग और कषाय के निमित्त से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराम ये आठ कर्म बन्धते हैं तथा इनका समुदाय कार्माण शरीर कहलाता है। ज्ञानावरण कर्म जीव के ज्ञान गुण को घातता है. इसी वजह से जीवों के ज्ञान में तारतम्यता देखी जाती है; कोई विशेष ज्ञानी होता है तो कोई अल्पज्ञानी । दर्शनावरण जीव के दर्शन गुगा को प्रकट होने में रुकावट डालता है। क्षयोपशम से जीव में दर्शन गुण की तारतम्यता देखी जाती है। वेदनीय के उदय से जीव को सुख और दुःख का अनुभव होता है; मोहनीय के उदय से जीव मोहित होता है, इसके दो भेद हैं-दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय ।
दर्शन मोहनीय के उदय से जीव को सच्चे मागे की प्रतीति नहीं होती है, उसे आत्मकल्याणकारी मार्ग दिखलायी नहीं पड़ता है। यही आत्मा के सम्यग्दर्शन गुण को रोकता है आत्मा और उसमें मिले कर्मों के स्वरूप की दृढ़ आस्था जीव में यही कर्म नहीं होने देता है । चारित्र मोहनीय का उदय जीव को कल्याणकारी मार्ग पर चलने में रुकावट डालता है। दर्शन मोहनीय के उपशम या क्षय होने पर जीव को सच्चे मार्ग का भान भी हो जाय तो भी यह कर्म उसको उस मार्ग का अनुसरण करने में बाधक बनता है।
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