________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रत्नाकर शतक
केळिदपं तनुगूडि तत्तनुगे जीवं पेसि सुज्ञानदि ।
पोलिदर्प शिवनागिये चदुरनो ! रत्नाकराधीश्वरा ॥१०॥ हे रत्नाकराधीश्वर! ___आत्मा शरीर रूपी गीले चमड़े के कवच को धारण किए हुए है; क्योंकि कर्मों के कारण आत्मा शरीर के साथ संचरण करता है। अपने रूप का विचार करने एवं शरीर की जुगुप्सा करने से सज्ज्ञान में प्रवेश करता है। इस आत्मा की शक्ति अपरिगणनीय है ॥१०॥
विवेचन----आत्मा के साथ अनादि कालीन कर्म प्रवाह के कारण सूक्ष्म कार्माण शरीर रहता है, जिससे यह शरीर में
आबद्ध दिखलायी पड़ता है। मन, वचन और काय की क्रिया के कारण कषाय-राग, द्वेष, क्रोध, मान आदि भावों के निमित्त से कर्मपरमाणु अात्मा के साथ बंधते हैं। योग शक्ति जैसी तीव्र या मन्द होती है वैसी ही संख्या में कम या अधिक कर्मपरमाणु श्रात्मा की ओर खिंच कर पाते हैं। जब योग उत्कृष्ट रहता है उस समय कर्मपरमाणु अधिक तादाद में और जब योग जघन्य होता है, उस समय कर्मपरमाणु कम तादाद में जीव की ओर आते हैं। इसी प्रकार तीव्र हषाय के होने पर कर्मपरमाणु अधिक समय तक आत्मा के साथ रहते हैं तथा तीव्र फल देते हैं। मन्द कषाय के होने पर कम समय तक रहते हैं और मन्द ही
For Private And Personal Use Only