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( vii )
सन् १९४७-४८ में स्व० नाथूदानजी महियारिया, उदयपुर की बीर सतसई जो जोधपुर सरकार द्वारा प्रकाशित की जा रही थी, उसकी टीका व संपादन करने के लिए मुझे व श्री सीताराम लालस को नियुक्त किया गया । काम सुचारु रूप से संपादित हुआ, कारणवश महियारियाजी को जोधपुर छोड़ना पड़ा और वे फिर लौट कर ना सके । वीर सतसई का संपादन करते समय राजस्थानी शब्दकोश की नितांत आवश्यकता का हम दोनों संपादकों ने अनुभव किया व उसके निर्माण की योजना का भी विचार किया ।
इसी बीच सादूल राजस्थानी रिसर्च इस्टीट्यूट, बीकानेर में राजस्थान भारती ( शोध पत्रिका ) व राजस्थानी शब्द कोश के कार्य के लिए शोध सहायक के पद पर मेरी नियुक्ति हो गई। दो तीन वर्षों के पश्चात् में शोधपत्रिकाका सम्पादक नियुक्त किया गया । शोध पत्रिका के कारण इंस्टीट्यूट की प्रतिष्ठा तो बहुत बढ़ी पर धनाभाव और समुचित व्यवस्था के प्रभाव में को कार्य आगे नहीं बढ़ सका । कोश व पत्रिका सम्पादन के लिये मैं अकेला था। इतना होते हुये भी लगभग साठ सहस्र शब्दों का सम्पादन हो चुका था । इसी समय सरकारी नियमानुसार मुझे साठ वर्ष की अवस्था पर रिटायर कर दिया गया । जितना भी काम हो चुका था उसे प्रकाशित करवाया जा सकता था, पर इंस्टीट्यूट वह भी न कर सका । दो एक वर्ष पूर्व समाचार मिला था कि कोश की बहुत सारी सामग्री इंस्टीट्यूट से गायब हो गई है ।
रिटायर होने के बाद मुझे खानगी रूप से कहा गया कि मैं बीकानेर ही हूँ और कार्य जारी रखूं, परन्तु मेरे चिरंजीव प्रो० भूपतिराम ने केला वहाँ रहना ठीक नहीं समझकर के मुझे वल्लभविद्यानगर (गुजरात) बुला लिया ।
बालोतरा, जोधपुर वगैरह में कोश की जो सामग्री ऐसी ही पड़ी थी उसका जीर्णोद्धार और परिवर्द्धन करने का काम यहाँ प्राकर पुनः शुरू किया । हमारी स्वयं की हस्तलिखित ग्रंथों की सामग्री जो बड़ेरों की संग्रह की हुई तो थी ही, पर अनेक अन्य प्रकाशित ग्रंथों को क्रय करना पड़ा तथा मानक हस्तलिखित ग्रंथों की प्रतिलिपियाँ करवानी पड़ीं। इस प्रकार यहाँ आने पर कोशकार्य एक नये ढंग से प्रारम्भ करना पड़ा ।
४. वीर सतसई जोधपुर सरकार द्वारा प्रकाशित नहीं हुई । अपने पुत्र मोहनसिंह का नाम सम्पादक के रूप 'देकर उन्होंने खुद ने प्रकाशित की। भूमिका में हम दोनों में से किसी के नाम तक का उल्लेख नहीं किया । मानदेय (Honorarium) तो अदृश्य ही हो गया ।
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