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पृ. ६७ पर 'प्राडो' शब्द है। उसके तुरन्तु बाद 'पाड़ो' पाया है और फिर 'प्राडो अड़ि', 'पाडो अवळो' आये हैं। इसी प्रकार पृ. २६४ पर 'खड' और 'खड़' हैं । पृ. २७१ पर 'खळ' खलक' 'खळकट', 'खळकरणो', और 'खलकत' दर्शनीय हैं।
एक और परिवर्तन शब्दों के लिंग-भेद-सूचक संकेतों में किया गया है । हिन्दी और संस्कृत कोशों में प्रयुक्त पुल्लिग और स्त्रीलिंग के स्थान पर 'नर' और 'नारी' का प्रयोग संक्षिप्त रूप 'न' और 'ना' में किया गया है । राजस्थान और राजस्थानी
एक समय था जब राजस्थानी भाषा का ध्वज देश के विशाल भू-भाग के साहित्याकाश में लहरा रहा था और आज दशा यह है कि प्रांतीय भाषाओं की कक्षा में भी उसे स्थान नहीं मिल सका है । मातृभाषा को इस दयनीय स्थिति से हृदय क्षोभ से भर जाता है, पर संतोष इतना ही है कि अाज परिस्थिति ने एक करवट बदली है और इसकी साहित्य-सेवी संतान अब माँ-भारती के विभिन्न अंगों और उपांगों को सबल बनाने में संलग्न है।
जब राजस्थान दुहरी गुलामी (अंग्रेजों और राजाओं) की मार से पीड़ित था, सर्वप्रकार की चेतना (शैक्षणिक, सामाजिक व राजनैतिक) के अभाव में राजस्थानी को हिन्दी की एक बोली मान लिया गया। इस प्रकार राजस्थानी भाषा अपने ही घर में अपने न्याययुक्त आसन से च्युत कर दी गई-एक विशाल राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत हो राजस्थानवासियों ने भी इस असत्य को सत्य मान लिया। प्रसिद्ध भाषाविद डॉ. सुनीतिकुमार चाटुा, डॉ. ग्रियर्सन और डॉ० तस्सितोरी जैसे प्रसिद्ध देश-विदेश के विद्वान् राजस्थानी को सर्वथा स्वतन्त्र भाषा स्वीकार करते हैं । डॉ. चाटुा का भाषा-वंश-वृक्ष दर्शनीय है :
वैदिक भाषा
संस्कृत
प्राकृत
मागधी शौरसेनी अपभ्रंश (नागर) पैशाची बंगाली पाली
हिन्दी
गुजराती
डिगळ (राजस्थानी)
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