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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तो फेरते है, परंतु हमारा मन तो भटकता ही रहता है। मुश्किल से दो पाँच नवकार संपूर्ण स्थिरता से गिने जाते होंगे। प्रतिक्रमण-चैत्यवंदन स्वाध्याय-पूजा पाठ अनुष्ठानों में मन स्थिर एकाग्र नहीं रहता। मन स्थिर रहे उसका कोई उपाय बताओ। अस्थिर मन से कि हुई क्रियाओं का क्या मतलब? पहली बात सीधे ही मन को स्थिर करने की मत सोचो पहले शरीर को साधो-शरीर को स्थिर करो क्योंकि जो शरीर को स्थिर कर सकता है वही मन को स्थिर रख सकता है। जो व्यक्ति शरीर को साध लेता है, वह सहनशक्ति को पा लेता है। उसे सहनशिलता सिद्ध हो जाती है। वह शरीर में होने वाली पीडा और कष्टों को प्रसन्नता से झेल सकता है। और जो व्यक्ति मन को साध लेता है वह एकाग्रता को पा लेता है। मन को साधना तो बड़ा कठीन है। इसके सामने तो बड़े-बड़े योगी भी हार जाते हैं। तभी तो आनंदधनजी महाराज ने कुंथुनाथ भगवान के स्तवन में गाया हैं-"मन साध्यं तेणे सघ लुं साध्यु" जिसने मन को साध लिया उसने सब साध लिया। हजार किलो वजनी हाथी को वश में रखना महावत के लिए सरल है। फुलस्पीड़ में दौड रही राजधानी एक्सप्रेस को कंट्रोल में रखना गार्ड के लिए आसान हैं। अरे! जेट विमान को भी काबू में रखना पायलोट के लिए फिर भी सरल है। परंतु मन! मन को नियंत्रित रखना बड़ा कठीन है। एक सज्झाय पद में कहा हैं क्या करूंमन स्थिर नहीं रहता। इधर फिरेमन मेरा, उधरफिरेमन मेरा।। यदि एकाग्रतापूर्वक कार्य संपन्न होता है तो उसमें अवश्य सफलता मिलती है। साधना के क्षेत्र में मन की एकाग्रता अत्यन्त जरूरी है। और जिसने वचन को साध लिया वह मौन को साध लेता है वह क्लेश-झगड़ों से बच जाता है। परन्तु जिसने तन, मन और वचन को साध लिया। वह आत्मा को पा लेता है। हम साधना करने बैठते है तो शरीर तो अस्थिर होता ही है, साथ वचन भी अस्थिर होता है फिर मन कहाँ से स्थिर रहेगा? थोड़ी-थोड़ी देर में काया को हिलाते-डूलाते रहते है। किसी से बातचीत भी कर लेते है, बोलकर नहीं करते %3 -105 For Private And Personal Use Only
SR No.020580
Book TitlePriy Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasagar
PublisherPadmasagarsuri Charitable Trust
Publication Year2006
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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