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श्री यशोदेवीये प्रत्याख्यान स्वरूपे
॥२२॥
जणम्मि ॥२६॥ संभोइयाइभेओ नत्थि गिहस्थाण तेण जो सत्तो । अविसेसेण पयच्छइ असमत्थो देइ उवएसं श्रावकाणां॥२५७।। एवं वत्थाईणिवि दाणे गिहिणो विही इमो चेव | तुच्छो पणमिय गुरुणो तप्परिवारस्स वा देइ ॥२५८॥ दानविधि: एसो अविसेसेणं दाउमसत्तोत्ति धम्मसूरीणं | दुप्पडियारत्तणओ विसेसओ पूयणिज्जाणं ॥२५९।। देइ विसेसे
सिं तप्परिवारस्स वावि गुणनिहिणो । अह उवगरणं गुरुणोवि अस्थि परेसिं च तं नत्थि ॥२६०॥ तो तेसि तं | पयच्छह अह दोण्हं नत्थि तत्थ दायव्वं । लद्धिविहीणाणं चिय अह लद्धिविवज्जिया दोवि ॥२६शा तो गुरुणो च्चिय देयं इहरा दोसा विवेगविरहाओ । आणाभंगऽणवत्थामिच्छत्तविराहणाईया ।।२६२।। अहऽतुच्छो पुण दोण्हं संतेऽसंते व लद्धिजुत्ताणं । लद्धाएँ विउत्ताण व तुल्लगुणाणंपि समणाणं ॥२६३।। जइदेज्जा दरवज्जिय तो तस्सममत्तदूसियमणस्स । अविवेइणो य धणियं सम्मं गुणभात्तसुन्नस्स ॥२६४॥ नियमेण होंति दोसा आणाभगाणवत्थमाईया । एत्तोच्चिय भणियमिणं जयजीवहिए जिणमयम्मि ॥२६५।। सड्डेणं सइ विभवे साहणं वत्थमाइ दायव्वं । गुणवंताण विसेसा दिसाए तत्थवि न जेसऽस्थि॥ तत्रापि येषां साधूनां वस्त्रादि नास्ति तेभ्यो देयमित्यर्थः ॥२६६।। तथा- संतं बज्झमणिच्चं ठाणे दाणंपि जो न वियरेइ । इय खुड्डगो कहं सो सील अइदुद्धरं धरइ ? ॥२६७।। दिसाविवरणायाह-दीसइ जीए सीसो सेहदिसा सूरिमाइया नेया । जह एस अमुगसीसो तदंतिए योहिलाभाओ ॥२६८॥ आभव्वावेक्खाए दिसा गिहस्थाण आगमे भणिया। पव्वज्जाभिमुहाणं मुक्कवयाणं च नऽन्नेसिं।२६९॥ जो पब्वइडं इच्छइ सामाइयमाइसुत्तपाढी य । सो चरणुज्जय गुरुणो तिन्नि समा तदुवरि भयणा ॥२७०॥ तथा
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