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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्री यशोदेवीये प्रत्याख्यान स्वरूपे ॥ २१ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बहुपि काउ सज्झायं । धम्मं कहं नु कुज्जं संजमगाहं च नियमेणं || २४०|| देति तओ अणुसट्ठि संविग्गो अप्पणा उ जीवस्स । रागद्दोसा भावं परमरहस्सं गणेमाणो || २४१ ॥ बायालीसेसणसंकडम्मि गहणम्मि जीव ! नऽसि छलिओ । इहि जह न छलिज्जसि भुंजतो रागदो सेहिं ॥ २४२|| रागद्दोसविरहिया वणलेवाइउबमाए भुंजंति । कत्तु नमोकारं विहीए गुरुणा अणुन्नाया ।। २४३ ॥ रागेण सइंगालं दोसेण सधूमगं मुणेयवं। रागद्दोसविरहिया भुजति जई उ परमत्थो || २४४ || जइ भागगया मत्ता रागाईणं तहा चओ कम्मे । रागाइविहुरयाविय पायं वत्थूण विहुरत्ता || २४५|| नियमेण भावणाओ विवक्खभूयाउ सुप्पउत्ताओ । होइ खओ दोसाणं रागाईणं विसुद्धाओ || २४६ ॥ जे बन्नानिमित्तं एत्तो आलंबणेण वडन्त्रेण । भुजंति तेसिं बंधो नेओ तप्पच्चओ तिब्बो || २४७|| भणिओ पारणगावही पच्चक्रवाणस्स पुवमुणिसिहो। एतो य समासेणं वोच्छं सयपालणादारं || २४८|| आह जह जीवधाए पच्चक्खाए न कारए अन्नं । भंग भयाऽसणदाणे धुवकारवणंति नणु दोसो ।। २४९ ॥ ततश्च-नो कयपच्चक्खाणो आयरियाईण देज्ज असणाई । न य विरइपालणाओ वेयावच्चं पहाणयरं || २५०॥ यतः- दाणमोरग्भिरणावि, चंडालेणवि दीयइ । जेण वा तेण वा सीलं, न सकमभिरक्खिउं ॥ सीलं च त्रिरतिः || २५१ ।। अत्रोत्तरम् -नो तिविहंति विहेणं पच्चक्खाणन्नदाण-: कारवणं । सुद्धस्स तओ मुणिणो न होइ त भंग उत्ति || २५२|| सयमेवऽणुपालणियं दाणुवएसा य णेह पडिसिद्धा । ता दिज्ज उवदिसेज्ज व जहासमाहीए अन्नेसिं ॥ २५३॥ कयपच्चक्खाणावि य आयरियगिलाणबालवुड्राणं । दे ॥ ज्जासणाइ संते लाहे कयवी रियायारो || २५४|| संविग्गअन्नसंभोइयाण दंसेज्ज सङ्कगकुलाणि । अतरतो वा संभो | इयाण जह वा समाहीए || २५५|| एवमिह सावगाणं दाणुवएसाइ संगयं चैव । पाणासणाइविसयं अविसेसेणं जड़ For Private and Personal Use Only पारणक -विधिः
SR No.020579
Book TitlePratyakhyan Swarupam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhdev Keshrimal Jain Shwetambar Sanstha Ratlam
PublisherRushabhdev Keshrimal Jain Shwetambar Sanstha Ratlam
Publication Year1927
Total Pages120
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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