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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली - तस्याः सद्भावे किं प्रमाणम् ? दुःखसन्ततिम्मिणी अत्यन्तमुच्छिद्यते सन्ततित्वाद्दीपसन्ततिवदिति तार्किकाः। तदयुक्तम्, पार्थिवपरमाणुरूपादिसन्तानेन व्यभिचारात्। "अशरीरं वाव सन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशतः" इत्यादयो वेदान्ताः प्रमाणमिति तु वयम् । भूतार्थानामेषामप्रामाण्यप्रसङ्ग इति चेन्न, प्रत्यक्षेणानकान्तिकत्वात्। अथ मतं भूतार्थप्रतिपादकं वचनमनुवादकं स्यात्, ततश्चाप्रमाणत्वं प्रमाणान्तरसापेक्षत्वात्, प्रमायां साधकतमत्वाभावादिति । .. (प्र०) इसमें क्या प्रमाण है कि दुःख की आत्यन्तिक निवृत्ति होती है ? इस प्रश्न के उत्तर में तार्किक लोग यह अनुमान उपस्थित करते हैं कि दुःखों की सन्तति (समूह) का अत्यन्त विनाश होता है, क्योंकि उसमें सन्ततित्व है, जैसे दीपसन्तति । किन्तु अत्यन्त विनाश के साधन के लिए जिस 'सन्ततित्व' हेतु को उपस्थित किया गया है, वह पार्थिव परमाणु के रूपादि में व्यभिचरित है। इसलिए हम लोग कहते हैं कि "अशरीरं वाव सन्तं न प्रियाप्रिये स्पृशतः" इत्यादि वेदान्त ही ( दुःख की आत्यन्तिक निवृत्ति में ) प्रमाण हैं । (प्र.) भूत अर्थात् निष्पन्न विषय के अर्थ का प्रतिपादन करनेवाले वेदान्त के ये वाक्य प्रमाण नहीं हैं। (उ०) ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि उस दशा में प्रत्यक्ष प्रमाण में व्यभिचार होगा। अगर ऐसा कहें कि भूत अर्थ के प्रतिपादक वचन अनुवादक हैं, अतः वेदान्तों में दूसरे प्रमाणों की अपेक्षा के कारण अप्रामाण्य की सिद्धि होगी। क्योंकि प्रमा का जो 'साधकतम' होगा, वही 'करण' होने से प्रमाण होगा। अनुवादक वाक्य अपने अर्थ के १. अभिप्राय यह है कि वैशेषिक पार्थिव परमाणु को नित्य मानते हुए भी उसमें रूप; रस, गन्ध और स्पर्श को अनित्य मानते हैं। क्योंकि पाक से उनका परिवर्तन घटादि स्थूल वस्तुओं में प्रत्यक्ष सिद्ध है । किन्तु उनके मूल कारण परमाणुओं में रूपादि के परिवत्तित हुए बिना घटादि में उनका परिवर्तन सम्भव नहीं है । अतः वह मानना पड़ेगा कि पार्थिव परमाणु के रूपादि पाक से परिवत्तित होते हैं। रूपादि का यह परिवर्तन पहिले रूपादि का नाश और दूसरे रूपादि की उत्पत्ति के सिवाय और कुछ नहीं है। किन्तु परमाणु तो नित्य है, उसमें सभी समय कोई न कोई रूपादि अवश्य रहते हैं । तस्मात् एक ही परमाणु में नानाजातीय रूपादि की सत्ता माननी पड़ेगी। इस प्रकार पार्थिव परमाणुगत नानाजातीय रूपादि का समूह मानना पड़ेगा। किन्तु उस समूह का कमी अत्यन्त विनाश नहीं होता है, अतः उसमें कथित 'सन्ततित्व' हेतु है । तस्मात् उक्त 'सन्ततित्व' हेतु व्यभिचार-दुष्ट है । २. प्रत्यक्ष निष्पन्न वस्तु का ही होता है। अतः “वेदान्ता अप्रमाणम्, भूतार्थविषयकत्वात्" अर्थात् वेदान्त अप्रमाण है, क्योंकि वे भूतार्थ के प्रतिपादक हैं। इस अनुमान का भूतार्थप्रतिपादकत्व हेतु प्रत्यक्ष प्रमाण में है, अथ च उसमें अप्रामाण्यरूप साध्य नहीं है। अतः उक्त हेतु व्यभचरित होने के कारण वेदान्तों में अप्रामाण्य का साधक नहीं हो सकता। For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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