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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org लाचरण न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् न्यायकन्दली क्षणाः स्वरसनिर्वाणाः, अयमपूर्वो जातः, सन्तानश्चैको न विद्यते, बन्धमोक्षौ चैकाधिकरणौ विषयभेदेन वर्तेते, य एव च प्रवर्तते प्राप्य च निवृत्तो भवति । ( ३ ) प्रकृतिपुरुषविवेकदर्शनादुपरतायां प्रकृतौ पुरुषस्य स्वरूपेणावस्थानं मोक्ष इत्यन्ये । तन्न, प्रवृत्तिस्वभावायाः प्रकृतेरौदासीन्यायोगात् । पुरुषार्थनिबन्धना तस्याः प्रवृत्तिः, विवेकख्यातिश्च पुरुषार्थः। तस्यां सजातायां सा निवर्तते कृतकार्यात्वादिति चेन्न, अस्या अचेतनाया विमृश्यकारित्वाभावात् । यथेयं कृतेऽपि शब्दाधुपलम्भे पुनस्तदर्थं प्रवर्तते, तथा विवेकख्यातौ कृतायामपि पुनस्तदर्थ प्रतिष्यते स्वभावस्यानपायित्वात् । (४) नित्यनिरतिशयसुखाभिव्यक्तिर्मुक्तिरित्यपरे। तदप्यसारम् , अग्रे निराकरिष्यमाणत्वात् । तस्मादहितनिवृत्तिरात्यन्तिकी महोदय इति युक्तम् । युक्त है (क्षण शब्द से क्षणिक-विज्ञान विवक्षित है), यह विशुद्धविज्ञान बिलकुल अपूर्व ही है। संतान नाम की कोई विलक्षण वस्तु नहीं है । यह नियम है कि जो बद्ध रहता है वही मुक्त होता है । एवं यह भी स्वाभाविक है कि जो प्रवृत्त होता है वही प्राप्त करके निवृत्त होता है । (३) कोई कहते हैं कि जब प्रकृति और पुरुष के भेदज्ञान से प्रकृति अपने सृष्टयादि कार्यों से निवृत्त हो जाती है, उस समय पुरुष की अपने स्वरूप में अवस्थिति ही 'मुक्ति' है। किन्तु यह पक्ष भी ठीक नहीं है, क्योंकि प्रवृत्तिस्वभाववाली प्रकृति कभी उससे उदासीन नहीं हो सकती। (प्र.) पुरुष के प्रयोजन-सन्पादन के लिए ही प्रकृति प्रवृत्त होती है, एवं प्रकृति और पुरुष का भेदज्ञान ही पुरुष का परम प्रयोजन है। उसके सम्पादित हो जाने पर वह कृतकार्य हो जाती है और फिर कार्य में प्रवृत्त नहीं होती। (उ०) किन्तु उक्त कथन भी युक्त नहीं है, क्योंकि प्रकृति जड़ है। उसमें विचारकर काम करने की शक्ति नहीं है, ( अतः ) वह जिस प्रकार शब्दविज्ञान के उत्पन्न होने पर भी फिर उसके लिए प्रवृत्त होती है, उसी प्रकार "विवेकख्याति" अर्थात् प्रकृति-पुरुष के विवेक-ज्ञान के उत्पन्न होने पर भी फिर उसके लिए प्रवृत्त होगी । (तस्मात् इस पक्ष में अनिर्मोक्ष प्रसङ्गहोगा)। (४) यह भी कोई कहते हैं कि नित्य एवं निरतिशय ( सर्वोत्कृष्ट) सुख की अभिव्यक्ति ही 'मुक्ति' है। इस मत के ठीक न होने की युक्ति आगे लिखी जाएगी। तस्मात् दुःख की आत्यन्तिक निवृत्ति ही 'मुक्ति' है। सम्बन्ध ही सुख और दुःखजनक होने के कारण 'बन्ध' है अतः उक्त विशुद्धज्ञान में घटादि विषयों के सम्बन्ध का उच्छेद ही मुक्ति है। यह ध्यान में रखना चाहिए कि "मात्माभिन्न ज्ञानोच्छेद" ही मुक्ति है. इस कथित पक्ष में नौ दोष दिखलाये गए हैं, ये दोष इस पक्ष में नहीं हैं, क्योंकि इस पक्ष में मुक्तावस्था में ज्ञानरूप आत्मा का नाश नहीं होता, किन्तु उसमें घटादि विषयों के सम्बन्ध का ही नाश होता है । For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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