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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[सामान्यनिरूपण
प्रशस्तपादभाष्यम् नीलमिति प्रत्ययानुवृत्तिः, तथा परस्परविशिष्टेषु द्रव्यगुणकर्मस्व विशिष्टा सत्सदिति प्रत्ययानुवृत्तिः । सा 'अनुवृति प्रत्यय' रूप कारण है । सत्ता नाम के परसामान्य की सिद्धि इस रीति से होता है कि जिस प्रकार नीलचर्म, नीलवस्त्र और नील कम्बलों में परस्पर विभिन्नता रहते हुए भी नील रङ्गके सम्बन्ध से उनमें से प्रत्येक में 'यह नील है' इस एक आकार की प्रतीतियाँ होती हैं, उसी प्रकार परस्पर विभिन्न द्रव्यों, गुणों और कर्मों में से प्रत्येक में यह सत् है' इस एक
न्यायकन्दली प्रति सामान्यापेक्षं यथा भवति, तथा ज्ञानोत्पत्तौ सत्यां योऽभ्यासप्रत्ययस्तेन यः संस्कारो जनितः, तस्मादतीतस्य ज्ञानप्रबन्धस्य ज्ञानप्रवाहस्य प्रत्यवे. क्षणात् स्मरणाद् यदनुगतमस्ति तत् सामान्यम् । किमुक्तं स्थात् ? एकस्मिन् पिण्डे सामान्यमुपलभ्य पिण्डान्तरे तस्य प्रत्यभिज्ञानादेकस्यानेकवत्तित्वमव. गम्यते । अत एव तत्र बाधकहेतवः प्रत्यक्षविरोधादपास्यन्ते ।।
यत् पूर्वमुक्तं परमपरं च द्विविधं सामान्यमिति तदिदानी विविच्य कथयति--तत्र परं सत्तासामान्यमनुवत्तिप्रत्ययकारणमेव । यद्यपि प्रत्यक्षेण प्रतीयते सत्ता, तथापि विपतिपन्नं प्रत्यनुमानमाह-यथा परस्परविशिष्टे
इसी प्रश्न का समाधान किया गया है । 'पिण्ड पिण्डं यथा स्यात्' इस व्युत्पत्ति के अनुसार प्रकृत प्रतिपिण्ड' शब्द प्रयुक्त हुआ है। अर्थात् प्रत्येक पिण्ड में जिस रीति से सामान्य का ज्ञान होता है, उसी रीति से जब सामान्य की 'अभ्यासप्रतीति' अर्थात् बार बार प्रतीति होती है, तब उससे सामान्यविषयक दृढ़ संस्कार की उत्पत्ति होती है। इस दृढ़ संस्कार से अतीत 'ज्ञानप्रबन्ध का अर्थात् ज्ञानसमूह का 'प्रत्यवेक्षण' अर्थात् स्मृति होती है, इस स्मृति के द्वारा ( विभिन्न व्यक्तियों में) जो अनुगत अर्थात् एक रूप से प्रतीत होता है, वही 'सामान्य' है। इससे निष्कर्ष क्या निकला ? ( यही कि ) एक वस्तु में सामान्य के प्रतीत होने पर दूसरी वस्तु में उसकी प्रत्यभिज्ञा होती है। इस प्रत्यभिज्ञा से ही समझते हैं कि एक ही सामान्य अनेक वस्तुओं में रहता है। अत एव सामान्य के इस स्वरूप को बाधित करनेवाले सभी हेतु प्रत्यक्षविरोधी होने के कारण स्वयं निरस्त हो जाते हैं।
पहिले कह चुके हैं कि पर और अपर भेद से सामान्य दो प्रकार का है। 'तत्र परं सत्ता' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा अब उसी को विचार पूर्वक और स्तिारपूर्वक समझाते हैं कि उनमें 'सत्ता' पर सामान्य (ही ) है। अर्थात् केवल 'अनुवृत्तिप्रत्यय' अर्थात् विभिन्न व्यक्तियों में एकाकार प्रतीति का ही प्रयोजक है । सत्ता यद्यपि प्रत्यक्ष प्रमाण से ही सिद्ध
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