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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ७३६ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् प्रशस्तपादभाष्यम् न्तरोपलब्धिदर्शनात । सुप्तस्य प्रबोधकाले जीवन पूर्वकप्रयत्नापेक्षात । अपसर्पणकर्मोपसर्पणकर्म चात्ममनः संयोगादष्टापेक्षा । कथम् ? यदा जीवन सहकारिणोर्धर्माधर्मयो रुपभोगात प्रक्षयोऽन्योन्याभिभवो इच्छा के बाद ही इन्द्रियों से विषयों की उपलब्धि होती है । ( किन्तु ) सोते हुए व्यक्ति के जागने के समय ( उसके मन की क्रिया यद्यपि ) आत्मा और मन के संयोग से ही उत्पन्न होती है, किन्तु उसमें जीवनयोनियन का साहाय्य भी अपेक्षित होता है ( इच्छाद्वेष या जनित प्रयत्न का नहीं ) । मन की 'उपसर्पण' और 'अपसर्पण' नाम की दोनों क्रियायें आत्मा और मन के संयोग से उत्पन्न होती हैं । जिसमें अदृष्ट का साहाय्य भी अपेक्षित होता है । ( प्र० ) किस प्रकार ? ( उ० ) जिस समय भोग से जीवन के सहकारी धर्म और अधर्म का विनाश हो जाता है, अथवा परस्पर एक दूसरे से ही दोनों की कार्योत्पादन शक्ति अवरुद्ध हो जाती है, उस समय जीवन के दोनों सहायकों के अभाव के कारण उनसे उत्पन्न होनेवाले प्रयत्न का भी विनाश हो जाता है । प्रयत्न के इस अभाव से ही प्राण का नाश होता है । इसके बाद अपने कार्य के उत्पादन में उन्मुख दूसरे धर्म और अधर्म से उस अपसर्पण नाम की क्रिया की उत्पत्ति होती है। जिससे ( ऐहिक न्यायकन्दली Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ कर्मनिरूपण मस्ति । तस्मादिच्छाद्वेषपूर्व कात् प्रयत्नान्मनसि क्रिया भूतेति गम्यते । सुप्तस्येति । सुप्तस्य पुरुषस्येन्द्रियान्तरसम्बन्धार्थं प्रबोधकाले मनसि क्रिया जीवनपूर्वक प्रयत्नापेक्षादात्ममनसोः संयोगात् । अपसर्पणेति । एतदपि कथमित्यादिना प्रश्नपूर्वकं कथयति । विशिष्टात्ममनः संयोगो जीवनम् तस्य स्वकार्यकरणे धर्माधर्मो सहकारिणौ । यदा For Private And Personal जाती है । पुरुष जिस समय रूप को देखना चाहता है, उस समय रूप को ही देखता है । एवं जिस समय रस का अस्वादन करना चाहता है, उस समय रस का ही आस्वादन करता है । अन्तःकरण ( मन ) के सम्बन्ध के बिना वाह्य इन्द्रियों में विषयों को ग्रहण करने का सामर्थ्य नहीं है । अतः समझते हैं कि इच्छा या द्वेष से उत्पन्न प्रयत्न से ही मन में त्रिया उत्पन्न होती है । 'सुप्तस्येति' अर्थात् सोते हुए पुरुष के मन में दूसरी इन्द्रियों के साथ सम्बन्ध के लिए जागते समय जो क्रिया उत्पन्न होती है, वह आत्मा और मन के संयोग से होती है, जिसे जीवनयोनियत्न के साहाय्य की भी अपेक्षा रहती है । 'अपसर्पणेति' मन में यह अपसर्पणादि क्रियायें किस प्रकार होती हैं ? यह प्रश्न कर उसका उत्तर देते हैं । आत्मा और मन का एक विशेष प्रकार
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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