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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रकरणम् ] भाषावादसहितम् प्रशस्तपादभाष्यम् च क्रिया, सा चाकाशादिषु नास्ति । तस्मान्न तेषां क्रियासम्बन्धोऽस्तीति । सविग्रहे मनसीन्द्रियान्तरसम्बन्धार्थं जाग्रतः कर्म आत्ममन:संयोगादिच्छा द्वेषपूर्वक प्रयत्नापेक्षात्, अन्वभिप्रायमिन्द्रियान्तरेण विषयापरिमाण को 'मूर्ति' कहते हैं । यह मूर्त्ति' जहाँ रहती है, क्रिया वहीं होती है | यह ( मूर्ति ) आकाशादि द्रव्यों में नहीं है, अतः उनमें क्रिया का सम्बन्ध भी नहीं है । शरीर के सम्बन्ध से युक्त आत्मा और मन के संयोग से या द्वेष से उत्पन्न प्रयत्न के साहाय्य Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ७३५ जागते हुए व्यक्ति के मन की क्रिया उत्पन्न होती है, जिसमें उसे इच्छा की भी आवश्यकता होती है, क्योंकि न्यायकन्दली नास्ति, अत: क्रियावत्त्वमपि न विद्यत इत्यर्थः । एतदेव विवृणोतिमूर्त्तिरित्यादिना । तद् व्यक्तम् । मनसि कर्मकारणमाह- सविग्रह इति । जाग्रतः पुरुषस्य सविग्रहे मनसि सशरीरे मनसीन्द्रियान्तरसम्बन्धार्थं कर्म आत्ममनः संयोगादिच्छाद्वेषपूर्वकप्रयत्नापेक्षाद् भवति । इच्छाद्वेषपूर्वकः प्रयत्नो जाग्रतो मनसि क्रियाहेतुरिति । कथमेतदवगतं तत्राह - अन्वभिप्रायमिन्द्रियान्तरेण विषयोपलब्धिदर्शनात् । जागरावस्थायामभिप्रायानतिक्रमेणेन्द्रियान्तरेण चक्षुरादिना विषयोपलब्धिदृश्यते । यदा रूपं जिघृक्षते पुरुषस्तदा रूपं पश्यति यदा रसं जिघृक्षते तदा रसं रसयति । न चान्तःकरणसम्बन्धमन्तरेण बाह्येन्द्रियस्य विषयग्राहकत्व For Private And Personal प्रकार आकाश, काल, दिक् और आत्मा इन चार महान् द्रव्यों में भी क्रिया की उत्पत्ति का विचार क्यों नहीं किया गया ? इस प्रश्न के उत्तरग्रन्थ का अभिप्राय है कि यह व्याप्ति है कि क्रिया मूर्त्त द्रव्यों में ही रहे. आकाशादि कथित चारों द्रव्य मूर्त्त नहीं हैं, अतः उनमें क्रिया भी नहीं है । 'मूत्तिः ' इत्यादि सन्दर्भ से इसी का विवरण दिया गया है । इस भाष्य ग्रन्थ का अर्थ स्पष्ट है । 'विग्रहे' इत्यादि सन्दर्भ से मन में जो कर्म उत्पन्न होता है, उसका कारण दिखलाया गया है । जागते हुए पुरुष के 'सविग्रहे मनसि' अर्थात् शरीर सम्बन्ध से युक्त मन में इन्द्रियान्तरसम्बन्धार्थ कर्म, आत्ममनः संयोगादिच्छाद्वेषपूर्वक प्रयत्नापेक्षात्' अर्थात् इच्छा या द्वेष से उत्पन्न प्रयत्न ही जागते हुए पुरुष के मन में क्रिया का कारण है । यह कैसे समझा ? इसी प्रश्न का उत्तर 'अन्वभिप्रायमिन्द्रियान्तरेण विषयोपलब्धिदर्शनात्' इस वाक्य से दिया गया है। अर्थात् जाग्रत अवस्था में इच्छा के अनुसार ही 'इन्द्रियान्तरेण अर्थात् चक्षुरादि इन्द्रियों से विषयों की उपलब्धि देखी
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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