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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम भाषानुवादसहितम् प्रशस्तपादभाष्यम् मेवाभिसर्पणम् । ततः पूर्वद्रव्यविनाशे सति प्रबन्धेनावस्थितैरवयवैर्दीधैं द्रव्यमारभ्यते। तत्र च कारणगुणपूर्वक्रमेण द्रवत्वमुत्पद्यते । तत्र च कारणानां संयुक्तानां प्रबन्धेन गमने यदवयविनि कर्मोत्पद्यते तत् स्यन्दनाख्यमिति । हो जाने पर संयुक्त रूप से अवस्थित जलावयवों से ही बड़े द्रव्य की उत्पत्ति होती है। इस बड़े द्रव्य में कारणगुणक्रम से द्रवत्व की उत्पत्ति होती है। वहाँ पर किनारों के साथ सम्बद्ध अवयवों का संयुक्त रूप से गमन होने पर जो अवयवी में क्रिया उत्पन्न होती है, उसी का नाम 'स्यन्दन' है। न्यायकन्दली त्ववयवद्रवत्वस्य वृत्तिलाभो भवति, अल्पस्यावयवस्य तेन मार्गेण निर्गति. सम्भवात् । तस्य वृत्तिलामे चोत्तरेषामवयवद्रवत्वानामपि प्रतिबन्धकाभावाद् वृत्तिलाभः स्वकार्यकर्तृत्वं स्यात् । ततः क्रमशः संयुक्तानामेवाभिसर्पणम् । सेतुसमीपस्थोऽवयवः प्रथममभिसर्पति, तदनु तत्समीपस्थस्ततस्तत्समीपस्थ इत्यनेन क्रमेण सर्वेऽवयवा अभिसर्पन्ति । ते चाभिसर्पन्तो न परस्परभिन्नदेशा अभिसर्पन्ति, कि तु तथाभिसर्पन्ति यथा. परस्परसंयुक्ता भवन्तीत्येतदवद्योतनार्थमुक्तं संयुक्तानामेवाभिसर्पणम् । न पुनरस्यायमर्थोऽप्रच्युतप्राच्यसंयोगानामेवाभिसर्पणमिति, संस्थानान्तरोपलम्भात् । ततः प्राक्तनसंयोगविनाशे पूर्वद्रव्यविनाशे प्रबन्धेनावस्थितैरवयवैः संयुक्तीभावेनावस्थितैरवयवैर्दोघं द्रव्यमारभ्यते । तत्र च कारणगुणपूर्वक्रमेण द्रवत्वमुत्पद्यते । अवयवद्रवत्वेभ्यो दीर्घतरेऽके द्रवत्व से कार्य करना सम्भव होने पर उत्तरेषामवयवद्रवत्वानामपि प्रतिबन्धकाभावाद् वृत्तिलाभः, अर्थात् अपने अपने कार्य करने में वे समर्थ होंगे। 'तत: क्रमशः-संयुक्तानामेवाभिसर्पणम्' अर्थात् पहिले बांध के समीप का अवयव निकलता है। उसके बाद उस अवयव के साथ संयुक्त दूसरा अवयव निकलता है। उनके बाद उस दूसरे अवयव के साथ सम्बद्ध तीसरा अवयव निकलता है। इसी क्रम से जल के सभी अवयव निकल जाते हैं। जल के वे अवयव ऐसे नहीं निकलते कि एक दूसरे से बिलकुल अलग होकर भिन्न देशों में चले जाँये, किन्तु इस प्रकार निकलते हैं कि जिससे परसर संयुक्त होकर ही निकलें। इसी वस्तुस्थिति को सूचित करने के लिए 'संयुक्तानामेवाभिसर्पणम्' यह वाक्य लिखा गया है । उक्त वाक्य का यह अर्थ नहीं है कि पहिले के अविनष्ट संयोग से युक्त अवयवों का ही निःसरण होता है क्योंकि निःसरण के बाद दूसरे प्रकार के अवयवसंयोगों से युक्त अवयवियों की उपलब्धि होती है। 'ततः' अर्थात् पहिले के संयोग के विनष्ट हो जाने पर 'पूर्वद्रव्यविनाशे प्रबन्धेनावस्थितैरवयवैः' अर्थात् परस्पर संयुक्त होकर अवस्थित अवयवों से 'दीर्घ द्रव्यमारभ्यते, तत्र च कारणगुणपूर्वक्रमेण द्रवत्वमुत्पद्यते' अर्थात् अवयवों में रहनेवाले द्रवत्वों से बड़े अवयवी For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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