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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ७३० न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [कर्मनिरूपण प्रशस्तपादभाष्यम् कृतो भवति, तदा समन्तात् प्रतिबद्धत्वादवयविद्रवत्वस्य कार्यारम्भो नास्ति । सेतुसमीपस्थस्यावयवद्रवत्वस्योत्तरेषामवयवद्रवत्वानां प्रतिबन्धकाभावाद् वृत्तिलाभः । त.. क्रमशः संयुक्तानाजाता है, उस समय सभी किनारों के साथ संयुक्त रहने के कारण अवयवी के द्रवत्व प्रतिरुद्ध रहते हैं, अतः अपना (स्यन्दन) क्रिया रूप काम नहीं कर सकते। अत: कोई प्रतिबन्ध न रहने के कारण बाँध के समीप में रहनेवाले जलावयवों के द्रवत्व हा अपने कार्य करने को उन्मुख रहते हैं। उसके बाद बाँध से संयुक्त जलावयवों में ही 'अपसर्पण' ( नीचे की तरफ फैलने की ) क्रियाओं की उत्पत्ति होती है। इसके बाद पहिले द्रव्य का विनाश न्यायकन्दली सर्वतो रोध:संयोगे कूलसंयोगे सति अवयविनो द्रवत्वं प्रतिबद्धं स्यन्दनं वा न करोति । अवयवद्रवत्वमप्येकार्थसमवेतं तेनैव प्रतिबद्धम्, यस्मिन्नवयवे साक्षाद् रोधःसंयोगोऽस्ति तदवयवगतद्रवत्वं तेनैव रोधःसंयोगेन प्रतिबद्धम, उत्तरोत्तराणि स्ववयवद्रवत्वानि संयुक्तसंयोगैः प्रतिबद्धानि, रोधःसंयुक्तेनावयवेन सह संयोगादवयवान्तरस्य द्रवत्वं प्रतिबद्धमिति । तत्संयोगादपरस्य प्रतिबद्धमित्यनेनैव न्यायेनोत्तरोत्तरद्रवत्वानि प्रतिबद्धानि । यदा तु मात्रया सेतुभेदः कृतो भवति, तदा समन्तात् प्रतिबद्धस्यावयविद्रवत्वस्य कार्यारम्भो नास्ति, दीर्घतरेण सेतुना समन्तात् प्रतिबद्धस्यावयविनो महापरिमाणस्यैकदेशकृतेनाल्पीयसा मार्गेण निर्गमाभावात् । सेतुसमीपस्थस्य 'समन्तात्' अर्थात् सभी कूल के अवयवों में 'रोधःसंयोगेन' दोनों किनारे के साथ जल का संयोग उसके द्रवत्व को प्रतिरुद्ध कर देता है। 'अवयवद्रवत्वमप्येकार्थसमवेतं तेनैव प्रतिबद्धम्' जिस अवयव का किनारे के साथ साक्षात् संयोग है, उस अवयव में रहनेवाला द्रवस्व भी अवयव और किनारे के संयोग से ही प्रतिरुद्ध हो जाता है । 'उत्तरोत्तराणि स्ववयवद्रवत्वानि संयुक्तसंयोगैः प्रतिबद्धानि' अर्थात् किनारे से संयुक्त अवयव के साथ संयोग के कारण ही अन्य अवयवों का द्रवत्व भी प्रतिरुद्ध होता है। उस अन्य अवयव के संयोग से तीसरे अवयव का द्रवत्व प्रतिरुद्ध होता है। इसी रीति से अन्य अवयवों के द्रवत्व भी प्रतिरुद्ध होते हैं। 'यदा मात्रया सेतुभेद: कृतो भवति तदा समन्तात् प्रतिबद्धस्यावविद्वत्वस्य कार्यारम्भो नास्ति' क्योंकि बहुत बड़े बांध से घिरे हुए उस महत् परिमाणवाले अवयवी रूप जल का किसी एक ओर बनाये गये छोटे मार्ग से निकलना सम्भव नहीं है। किन्तु उस बाँध के समीप में जो थोड़े से जल के अवयव हैं, उनका उस छोटे से मार्ग से निकलना सम्भव है। इस प्रकार जल के कुछ अवयवों For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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