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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ७२२ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् नरूपण प्रशस्तपादभाष्यम् सर्व युगपत् । एवमाकर्णादाकृष्टे धनुषि नातः परमनेन गन्तव्यमिति यज्ज्ञानं ततस्तदाकर्षणार्थस्य प्रयत्नस्य विनाशस्ततः पुनर्मोक्षणेच्छा सजायते, तदनन्तरं प्रयत्नस्तमपेक्षमाणादात्माङ्गलिसंयोगादङ्गलिकम, तस्माज्ज्याङ्गुलि विभागः, ततो विभागात् संयोगविनाशः, तस्मिन् विनष्टे प्रतिबन्धकाभावाद् यदा धनुषि वर्तमानः स्थितिस्थापकः संस्कारो मण्डलीभूतं धनुयथावस्थितं स्थापयति, तदा संयोग भी सहायक हैं। ये सभी काम एक ही समय होते हैं। इस प्रकार कान तक धनुष के खींचे जाने पर 'इसको इससे आगे नहीं जाना चाहिए' इस आकार का ( संकल्पात्मक ) ज्ञान (उत्पन्न होता है )। इस ज्ञान से आकर्षण के कारणीभूत प्रयत्न का विनाश हो जाता है। फिर उसे छोड़ने की इच्छा उत्पन्न होती है। इसके बाद तदनुकूल प्रयत्न की उत्पत्ति होती है। आत्मा और अङ्गुलि के संयोग से अङ्गुलि में क्रिया की उत्पत्ति होती है, जिसमें उक्त प्रयत्न का साहाय्य भी अपेक्षित होता है। अगुलि की इस क्रिया से डोरी और अङ्गुलि में विभाग उत्पन्न होता है। इस विभाग से । डोरी और अगुलि के ) संयोग का विनाश होता है । उस संयोग के नष्ट हो जाने पर किसी प्रतिबन्धक के न रहने के कारण धनुष न्यायकन्दली कर्मणी धनुष्कोटयोरित्येतत् सर्वं युगपत्, कारणयोगपद्यात् । एवमाकर्णादाकृष्टे धनुषि नातः परमनेन हस्तेन गन्तव्यमिति यद् ज्ञानं तस्मात् । तदाकर्षणार्थस्येति धनुराकर्षणार्थस्य प्रयत्नस्य विनाश इति । ततः शरस्य गुणस्य च मोक्षणेच्छा च । तदनन्तरं प्रयत्नो मोक्षणार्थः, तमपेक्षमाणादात्मागुलिसंयोगादगुलिकर्म । तस्माद् ज्याङ्गुलिविभागः, शरगुणाभ्याम । युगपत्' क्योंकि सब को सामग्री एक ही समय उपस्थित है । 'एवमाकर्णादाकृष्टे धनुषि नातः परमनेन हस्तेन गन्तव्यमिति यज्ज्ञानम्' अर्थात् उसी ज्ञान से 'तदाकर्षणार्थस्य' धनुष को अपनी ओर खींचने के लिए जो प्रयत्न था उसका विनाश होता है। ___ इसके बाद तीर और डोरी को छोड़ देने की इच्छा होती है, उसके बाद छोड़ने के अनुकल प्रयल की उत्पत्ति होती है 'तमपेक्षमाणादात्मागुलिसंयोगादङ्गुलिकम, तस्माज्ज्याङ्गुलिविभागः' अर्थात् डोरी का शर से और अगुली का डोरी से विभाग उत्पन्न होता है। इस विभाग से शर का और डोरी का संयोग और डोरी के For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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