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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[ मङ्गलाचरण
न्यायकन्दली
शुद्धात्मज्ञानप्रदीपक्षपिततमसमत्युग्रतपसं साक्षादशेषतत्त्वावबोधयुक्तं पुरुषविशेषमाह, इत्थम्भूत एवार्थे मुनिशब्दस्य लोके दर्शनात् । कणादमिति तस्य कापोती वृत्तिमनुतिष्ठतो रथ्यानिपतितांस्तण्डुलकणानादाय प्रत्यहं कृताहारनिमित्ता संज्ञा। अत एव "निरवकाशः कणान् वा भक्षयतु” इत्युपालम्भस्तत्रभवताम् । इदं हि तस्थ नामेति तच्छब्दसङ्कीर्तनं कृतं प्रशस्तदेवेन, न त्वियं तदुपनिबन्धवैशिष्टयख्यापनाय युक्तिरभिहिता, तदुपनिबन्धवैशिष्टयस्य मन्वादिवाक्यवन्महाजनपरिग्रहादेव प्रतीतेः । न चास्य कणादशास्त्रख्यापनेन किञ्चित् प्रयोजनमस्ति ।
___ तावता तत्पूर्वकस्य ग्रन्थस्य वैशिष्टयसिद्धिरिति चेन्न, अवश्यं तत्पूर्वकत्वेन स्वग्रन्थस्य वैशिष्टयसिद्धिः, कर्तृ दोषेणाऽयथार्थस्यापि निबन्धस्य सम्भावनास्पवत्वात् । सम्भावितप्रामाण्ये प्रशस्तदेवे पुरुषदोषाणामसम्भव इति चेत् ? एवं तर्हि यथा कणादशिनां तच्छिष्याणां पुरुषप्रत्ययादेव तथात्वनिश्चयात् तदुपनिबन्धे प्रवृत्तिः, अपरेषाञ्च पुरुषान्तरसंवादात् । एवं प्रशस्तदेवकृतोपनिबन्धेऽपि तच्छिष्याणामपरेषाञ्च प्रवृत्तिर्भविष्यतीति नार्थस्तत्पूर्वकत्वख्यापनेन । प्रदीप से नष्ट हो गया है, वही विशिष्ट पुरुष 'मुनि' शब्द से अभिप्रेत है,क्योंकि इसी प्रकार के अर्थ में 'मुनि' शब्द का प्रयोग लोक में देखा जाता है। उन (शास्त्रकर्त्ता) का यह 'कणाद' नाम रास्ते में गिरे हुए अन्नकणों को कपोत की तरह चुन-चुन कर आहार करने का कारण है । अत एव उनके खण्डन-ग्रन्थों में जहां तहाँ "अब कोई उपाय न रहने के कारण कणों को खाइये" यह आक्षेपयुक्त उक्ति उनके लिए देखी जाती है। यह (कणाद) इनका नाम है, इसीलिए प्रशस्तदेव ने 'कणाद' शब्द का प्रयोग किया है, अपने ग्रन्थ में ख्याति दिखलाने की दृष्टि से नहीं। इस निबन्ध रूप वाक्यों के वैशिष्टय की प्रतीति मनु इत्यादि स्मृतिकारों के वाक्य की तरह महापुरुषों के इसके अनुसार चलने से ही हो जाती है। यह निबन्ध कणादकृत शास्त्रमूलक है, यह प्रसिद्ध करने का कोई प्रयोजन भी नहीं है।
(प्र०) इस प्रसिद्धि से ग्रन्थ में उत्कर्ष की सिद्धि होगी। (उ०) यह ठीक है कि इस प्रसिद्धि से ग्रन्थ में उत्कर्ष की सिद्धि होगी, किन्तु कर्ता के दोष से उत्कृष्ट निबन्ध में भी वैशिष्टय संशयास्पद हो जाता है । (प्र.) प्रशस्तदेव में प्रामाण्य निश्चित है, अतः उनमें पुरुष-दोष की सम्भावना नहीं है । (उ०) अगर ऐसी बात है तो फिर जैसे (कणादरूप) पुरुष में प्रामाण्यनिश्चय के कारण कणाददर्शन के अनुगामी उनके शिष्यों की प्रवृत्ति उनके ग्रन्थ के अध्ययन में होती है, एवं औरों की प्रवृत्ति उन प्रवृत्त पुरुषों की सफलता सुनकर होती है, उसी प्रकार उनके शिष्यों की एवं औरों की भी प्रवृत्ति इस ग्रन्थ के अध्ययन में भी होगी। तस्मात् "यह निबन्ध कणादसूत्रमूलक है" इसे प्रसिद्ध करने का कोई प्रयोजन नहीं है।
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