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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् । भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली . कथमेषा प्रतीतिरिति चेत् ? कर्तुः शिष्टतयैव । अस्तु वा तावदपरः । प्रेक्षावान् म्लेच्छोऽपि तावद् गुर्वारम्भे कर्मणि न प्रवर्तते यावदिष्टान्न नमस्यति । यदिमौ परमास्तिको पक्षिलशबरस्वामिनी नानुतिष्ठत इत्यसम्भावनमिदम् । .. .. अक्षरार्थो व्याह्रियते-प्रणम्येति। प्रकर्षवाचिना प्रशब्देन भक्तिश्रद्धातिशयपूर्वकं नमस्कारमाचष्टे । स हि धर्मोत्पादकस्तिरयत्यन्तरायबीजं नापरः। अत एव कृतनमस्कारस्यापि कादम्बादेरपरिसमाप्तिः, विशिष्टनमस्काराभावात् तदवैशिष्टयस्य कार्यगम्यत्वात् । अत्रैव च नमस्कारः क्रियमाणोऽपि करिष्यमाणपदार्थधर्मसङ्ग्रहप्रवचनापेक्षया पूर्वकालभावीति क्त्वाप्रत्ययेनाभिधीयते तदेकवाक्यतामापादयितुम्, न त्वस्य पूर्वकालमात्रतामनूद्यते, अनुवादे वा प्रयोजनाभावात् । हेतुमिति निविशेषणेन हेतुपदेन सर्वोत्पत्तिमतां निमित्ततां प्रतिजानीते। ईश्वरमिति विशिष्टदेवताया अभिधानम्, लोके तद्विषयत्वेनैवास्य पदस्य प्रसिद्धेः, लोकप्रसिद्धार्थोपसङ्ग्रहत्वादस्य शास्त्रस्य। मुनिमिति (प्रश्न) यह कैसे समझा जाय ? (उत्तर) उन लोगों की शिष्टता से ही। अथवा और भी इसका हेतु हो सकता है। किन्तु बुद्धिमान् म्लेच्छ भी इस प्रकार के बड़े काम में तब तक प्रवृत्त नहीं होता है, जब तक अपने इष्टदेवता को नमस्कार न कर ले । फिर परम आस्तिक पक्षिलस्वामी (वात्स्यायन) और शबरस्वामी ग्रन्थनिर्माण से पहिले मङ्गलाचरण न करें यह बात सम्भावना के बाहर है। - मङ्गल-श्लोक में प्रयुक्त प्रत्येक पद की व्याख्या करते हैं। 'प्रणम्य' पद में प्रयुक्त प्रकर्षवाची 'प्र' शब्द से भक्ति और श्रद्धा से युक्त नमस्कार का बोध होता है। वहीं (भक्ति-श्रद्धा पूर्वक) नमस्कार धर्माजनक होकर विघ्नों को मूल सहित नष्ट करता है, भक्ति और श्रद्धा से रहित नमस्कार नहीं। इसीलिए कादम्बरी प्रभृति ग्रन्थों में नमस्कार होने पर भी समाप्ति नहीं हुई। नमस्कार में भक्तिश्रद्धायुक्तत्व का अभाव कार्य से ही समझा जा सकता है। नमस्कार भी यद्यपि इस ग्रन्थ में ही किया जा रहा है, तथापि आगे प्रतिपादित की जानेवाली वस्तु को अपेक्षा वह पहिले है । मङ्गलग्रन्थ और वस्तुविवेचनग्रन्थ दोनों में एकवाक्यता लाने के अभिप्राय से 'क्त्वा' प्रत्यय का प्रयोग किया गया है। इससे मङ्गल-ग्रन्थ में विषय-ग्रन्थ से पूर्वकालतामात्र अभिप्रेत नहीं है, क्योंकि उसका यहाँ कोई प्रयोजन नहीं है। बिना विशेषण के केवल 'हेतु' शब्द से ईश्वर में सभी उत्पत्तिशील वस्तुओं की कारणता समझायी गई है यहाँ 'ईश्वर' शब्द विशेष प्रकार के देवता का वाचक है, क्योंकि लोक में ईश्वर शब्द इसी अर्थ में प्रसिद्ध है एवं यह शास्त्र लोक में प्रसिद्ध अर्थों का ही विवेचक है। उग्र तपस्या और सभी विषयों के यथार्थ ज्ञान से युक्त जिस व्यक्ति का अज्ञानरूप अन्धकार विशुद्ध आत्मज्ञानरूप For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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