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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् ७०७ प्रशस्तपादभाष्यम् प्रसङ्गः। न चैवमुत्क्षेपणादिषु प्रत्ययसङ्करो दृष्टः। तस्मादुत्क्षेपमादीनामेव जातिभेदात् प्रत्ययानुवृत्तिव्यावृत्ती, निष्क्रमणादीनां तु कार्यभेदादिति । कथं युगपत् प्रत्ययभेद इति चेत् ? अथ मतं यथा जातिसङ्करो नास्ति, एवमनेककर्मसमावेशोऽपि नास्तीत्येकस्मिन् कर्मणि युगपद् द्रष्ट्रणां भ्रमणपतनप्रवेशनप्रत्ययाः कथं भवन्तीति ? अत्र ब्रमः-न, अवयवावयविनोदिंगविशिष्टसंयोग विभागानां भेदाद् । यो से होती हैं । (प्र०) एक ही समय (एक हि क्रिया में ) उक्त विभिन्न प्रतीतियाँ कैसे होती हैं ? ( विशदार्थ यह है कि ) जिस प्रकार (उत्क्षेपणत्वादि जातियों के मानने में ) जातिसङ्कर रूप दोष सम्भव नहीं है, ( उसी प्रकार ) एक ही समय एक ही वस्तु में ( निष्क्रमण प्रवेशनादि ) अनेक कर्मों का रहना भी सम्भव नही है, फिर एक ही समय एक ही द्रव्य में अनेक देखनेवाले को ( भी ) भ्रमण, पतन और प्रवेशन विषयक प्रतीतियाँ कैसे हो सकती हैं ? ( उ० ) इस प्रश्न के समाधान में हम लोगों का कहना है कि नहीं, ( अर्थात् उक्त प्रतोतियाँ असम्भव नहीं हैं ) क्योंकि एक ही वस्तु में एक ही समय भ्रमणादि की उक्त प्रतीतियाँ नाली में गिरे पत्ते प्रभृति अवयवी और उनके अवयवों को विभिन्न दिशाओं में उत्पन्न हुए संयोग विभागादि कार्यों की विभिन्नता से होती हैं। देखनेवालों में से जो व्यक्ति पार्श्व से क्रमशः प्रदेश के अवयवों का दिक्प्रदेशों के साथ संयोगों और विभागों को न्यायकन्दली किन्तु गमनप्रत्यय एव भवति । तस्माद् गमनमेव, तत्रोपाधिकृतश्च प्रत्ययभेद इत्यभिप्रायः । उदाहरणान्तरमाह-तथा नालिकायामिति । नालिकेति गर्तस्याभिधानम्। स्वपक्षे विशेषमाह-न चैवमिति। उपसंहरति-तस्मादिति । एकदेकस्मिन् द्रव्ये तावदेकमेव कर्म भवति, तत्र कथं युगपदनेककर्मप्रत्यय 'निष्क्रमण' प्रत्यय और 'प्रवेशन' प्रत्यय प्रभृति विभिन्न प्रत्यय होते हैं । 'तथा नालिकायाम्' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा इसी प्रसङ्ग में दूसरा दृष्टान्त दिखलाया गया है। 'नालिका' गड्ढे को कहते हैं। 'न चैवम्' इत्यादि से पूर्व पक्ष की अपेक्षा अपने सिद्धान्त पक्ष में अन्तर दिखलाते हैं । 'तस्मात्' इत्यादि सन्दभ के द्वारा इस प्रसङ्ग का उपसंहार करते हैं । 'कथम्' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा यह आक्षेप करते हैं कि यदि एक समय एक द्रव्य में एक ही क्रिया हो सकती है, तो फिर एक ही समय अनेक कर्मों की प्रतीति कैसे होगी ! 'अथ मतम् For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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