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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ७.०६ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [कर्मनिरूपण प्रशस्तपादभाष्यम् दृष्टौ, तथा द्वारप्रदेशे प्रविशति निष्क्रामतीति च । यदा तु प्रतिसीराघपनीतं भवति, तदा न प्रवेशनप्रत्ययो नापि निष्क्रमणप्रत्ययः, किन्तु गमनप्रत्यय एवं भवति । तथा नालिकायां वंशपत्रादौ पतति बहूना द्रष्टणां युगपद् भ्रमणपतनप्रवेशनप्रत्यया दृष्टा इति जातिसरहुए एक ही व्यक्ति में ( विरुद्ध दिशाओं में खड़े हुए दो व्यक्तियों को) क्रमशः 'यह प्रवेश करता है' एवं 'यह निकलता है। इन दोनों प्रकार की प्रतीतियाँ होती हैं। ( जब जाते हुए व्यक्ति के बीच की ) प्रतिसीरा ( प ) उठा दी जाती है, तब उन्हीं दोनों व्यक्तियों को न निष्क्रमण की प्रतीति होती है और न प्रवेशन की प्रतीति, केवल गमन की ही प्रतीति होती है। इसी प्रकार बहती हुई नाली में जब बाँस प्रभृति के पत्ते गिरते हैं, तब उन पत्तों में एक ही समय बहुत से देखनेवालों में से किसी को भ्रमण की प्रतीति होती है और किसी को प्रवेशन की प्रतीति होती है। अतः निष्क्रमणत्वादि जातियों के मानने पर जातिसङ्कर दोष होगा। उत्क्षेपणादि क्रियाओं में इस प्रकार का साङ्कर्य नहीं देखा जाता। अतः उत्क्षेपणादि क्रियाओं में अनुवृत्ति की प्रतीति और व्यावृत्ति की प्रतीति उत्क्षेपणत्वादि जातियों के भेद से होती हैं, किन्तु निष्क्रमणादि क्रियाओं में उक्त दोनों प्रतीतियाँ कार्यों की विभिन्नता न्यायकन्दली यत्र प्रविशति तत्र स्थितस्य प्रविशतीति प्रत्ययः । यदि जातिकृताविमौ प्रत्ययौ दृष्टौ तदैकस्यां व्यक्तौ परस्परविरुद्धनिष्क्रमणत्वप्रवेशनत्वजातिद्वयसमावेशो दूषणं स्यात् । तथा द्वारप्रदेशे प्रविशति निष्क्रामतीति यथैकस्मिन्नेव बहुप्रकोष्ठके गृहे प्रकोष्ठात् प्रकोष्ठान्तरं गच्छति पुरुषे पूर्वापरप्रकोष्ठस्थितयोद्रष्ट्रोरप्रदेशे निर्गच्छति प्रविशतीति प्रत्ययौ भवतः। यदा तु प्रतिसीराद्यपनीतं मध्यस्थितं जवनिकाद्यपनीतं भवति, तदा न प्रवेशनप्रत्ययो नापि निष्क्रमणप्रत्ययः, उसी पुरुष में 'प्रविशति' यह प्रतीति होती है। यदि निष्क्रमण और प्रवेशन क्रियाओं की प्रतीतियाँ निष्क्रमणत्वादि जाति मूलक हों, तो फिर एक ही व्यक्ति में परस्पर विरुद्ध निष्क्रमणत्व और प्रवेशनत्वादि जातियों का समावेश रूप साङ्कर्य दोष की आपत्ति होगी। 'तथा द्वारदेशे प्रविशति निष्कामतीति' उक्त भाष्य सन्दर्भ का यह अभिप्राय है कि जैसे बहुत सी कोठरियों वाले भवन में यदि एक पुरुष एक कोठरी से दूसरी कोठरी में जाता है, तो जिस कोठरी से वह जाता है उस कोठरी में रहनेवाले दूसरे पुरुष को उस जानेवाले पुरुष में 'यह निकलता है। इस प्रकार की प्रतीति होती है और जिस कोठरी में वह जाता है, उस कोठरी में रहनेवाले दूसरे पुरुष को उसी पुरुष में 'यह आता है' इस प्रकार की प्रतीति होती है। 'यदा तु प्रतिसीराद्यपनीतम्' अर्थात् जब बीच का पर्दा (या दीवाल जिससे कोठरियाँ बनती हैं ) हटा दिया जाता है, उस समय उसी पुरुष में न निकलने' की और न 'आने' की प्रतीति होती है, केवल 'चलने' की ही प्रतीति होती है। अतः वह 'गमन' रूप क्रिया ही है, उसी में उपाधि भेद से For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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