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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली चोदितैरनन्तानां कथमेकस्मिन् जन्मनि परिक्षय इति चेत् ? न, कालानियमात् । यथैव तावत् प्रतिजन्म कर्माणि चीयन्ते, तथैव भोगात् क्षीयन्ते च। यानि स्वपरिक्षीणानि तान्यात्मज्ञेनापूर्व सञ्चिन्वता च क्रमेणोपभोगात् कर्मभिश्च नाश्यन्ते । यथोक्तम् कुर्वन्नात्मस्वरूपज्ञो भोगात् कर्मपरिक्षयम् । युगकोटिसहस्रण कश्चिदेको विमुच्यते।। इति । तदेवं विहितमकुर्वतः प्रत्यायोत्पत्तस्तस्य च बन्धहेतुत्वादन्यतो विरामाभावात्, प्रत्यवायनिरोधार्थ मुक्तिमिच्छता योगाभ्यासाविरोधेन भिक्षाभोजनादि. वद् यथाकालं विहितान्यनुष्ठयानि, यावदस्यात्मतत्त्वं न स्फुटीभवति । स्फुटीकृतात्मतत्त्वस्यापि जीवन्मुक्तस्य तावत्कर्माणि भवन्ति, यावद्यात्रानुवर्तते । आत्मैकप्रतिष्ठस्य त्वभ्यर्णमोक्षस्य परिक्षीणप्रायकर्मणः तानि नश्यन्त्येव, बहिः संवित्तिविरहात् । परिणतसमाधिसामर्थ्य विशदीकृतमुपचितवैराग्याहितपरिपाकपर्यन्तमापादितविषयाद्वैतमुन्मूलितनिखिलविपर्ययवासनमेकाग्रीकृतान्त:करणकारणमात्मतत्त्वज्ञानमेव केवलं तदानीं सजायते, न बहिःसंवेदनम्, प्रकार प्रत्येक जन्म में कर्म का सञ्चय होता है उसी प्रकार भोग से उनका विनाश भी होता रहता है। उनमें जितने कर्म भोग से बच जाते हैं, उन कर्मों को आगे आत्मज्ञ पुरुष अपूर्व कर्मो का सञ्चय करते हुए ही भोग से और (प्रतिरोधक) कर्म से क्रमशः नष्ट कर देते हैं। जैसा कहा गया है कि आत्मज्ञान से भोग के द्वारा कर्मों का नाश करते हुए हजारों कोटियुगों में कोई एक पुरुष मुक्त होता है। ___ इन सब कारणों से यह मानना पड़ता है कि यतः विहित कर्मों को न करने से प्रत्यवाय होता है, एवं प्रत्यवाय बन्ध का कारण है, इस प्रत्यवाय की निवृत्ति विहित कर्मों के अनुष्ठान के बिना सम्भव नहीं है, अतः जिन्हें मुक्ति पाने की अभिलाषा हो, उन्हें योगाभ्यास को क्षति पहुँचाये बिना विहित कर्मों का अनुष्ठान तब तक करते रहना चाहिए, जब तक आत्मतत्त्व पूर्ण रूप से अवगत न हो जाय। जैसे कि ज्ञान न हो जाने तक भिक्षा भोजन प्रभृति कर्मों का अनुष्ठान अन्त तक करना पड़ता है। आत्मा का परिस्फुट ज्ञान हो जाने पर भी यदि वे जीवनमुक्त हैं, तो जब तक यह शरीर है, तब तक नित्य नैमित्तिक कर्मों का अनुष्ठान उन्हें भी करना पड़ेगा। जिस महापुरुष को केवल आत्मा का ही ज्ञान रह जाता है, और इस कारण जो परम मुक्ति के समीप पहुँच जाते हैं, उनसे कर्म स्वयं छूट जाते हैं, क्योंकि उन्हें बाह्य विषयों का ज्ञान हो नहीं रह जाता । उन्हें तो केवल आत्मा का ही विशिष्ट ज्ञान रह जाता है। परिणत समाधि के द्वारा उत्पन्न होने के कारण जिस आत्मज्ञान में पूरी स्वच्छता आ गयी है, तीव्र वैराग्य से जिसमें पूरी परिपक्वता आ गयी है। एवं जिस आत्मज्ञान में दूसरे सभी विषयों का सम्बन्ध पूर्णतः समाप्त हो गया है। जिससे सभी विपर्यय रूप मिथ्या ज्ञान का For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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