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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ६८६ www.kobatirth.org जीवन्नेव कापिला: न्यायकन्दली संवलितप्रशस्तपादभाष्यम् न्यायकन्दली Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir हि विद्वान् संहर्षायासाभ्यां विप्रमुच्यते इति । [ गुणनिरूपणे मोक्ष तथा चाहु: सम्यग्ज्ञानाधिगमाद् धर्मादीनामकारणप्राप्तौ । तिष्ठति संस्कारवशाच्चक्रभ्रमवद् धृतशरीरः ।। इति । धर्मादीनामकारणप्राप्ताविति तत्त्वज्ञानेनोच्छिन्नेषु सवासनक्लेशेषु धर्मादीनां सहकारिकारणप्राप्त्यभावे सतीत्यर्थः । अलब्धवृत्तीनि कर्माणि तत्त्वज्ञानाद् विलीयन्त इति चेत् ? न तेषामपि कर्मत्वादारब्धफलकर्मवज् ज्ञानेन विनाशाभावात् । योऽपि 'क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे' इत्युपदेशः, तस्याप्ययमर्थः -- ज्ञाने सति अनागतानि कर्माणि न क्रियन्त इति । न पुनरयमस्यार्थःउत्पन्नानि कर्माणि ज्ञानेन विनाश्यन्त इति । तथा चागमान्तरम् 'नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि' इत्यादि । ज्ञानं यदि न क्षिणोति कर्माणि ? अनेकजन्म सहस्रसञ्चितानां कर्मणां कुतः परिक्षयः ? भोगात् कर्मभिश्च । तदर्थं कहती है कि 'आत्मज्ञानी पुरुष शरीर को धारण करते हुए भी हर्ष और शोक से विमुक्त रहते हैं" इसी प्रसङ्ग में सांख्यदर्शन के आचार्य ने भी कहा है कि- For Private And Personal 'सम्यग्ज्ञान ( आत्मतत्त्व ज्ञान ) की प्राप्ति से धर्मादि से संसार के उत्पादक सहकारी ( वासनादि ) नष्ट हो जाते हैं, फिर भी संस्कार के कारण कुम्हार के चाक के भ्रमण की तरह तत्त्व ज्ञानी शरीर को धारण किये ही रहते हैं । उक्त आर्या में प्रयुक्त 'धर्मादीनामकारण प्राप्ती' इस वाक्य का अर्थ है कि 'तत्त्वज्ञान से जब वासना सहित सभी क्लेशों का नाश हो जाता है, जब संसार के कारणीभूत धर्मादि भावों के सहकारी नष्ट हो जाते हैं, उस समय ' | ( प्र० ) तत्त्वज्ञान के द्वारा प्रारब्ध से भिन्न सभी कर्मों का विनाश हो जाता है । ( उ० ) यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि प्रारब्ध कर्म की तरह वे भी कर्म ही हैं अतः तस्वज्ञान से उनका भी नाश नहीं हो सकता । 'क्षीयन्ते चास्य कर्माणि' इत्यादि वाक्य का जो यह उपदेश है कि " आत्मतत्त्वज्ञान के हो जाने पर उसके सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं" उसका इतना ही अभिप्राय है कि ज्ञान हो जाने के बाद कर्म की धारा रुक जाती है । फिर भविष्य में कर्म अनुष्ठित नहीं होते । उसका यह अर्थ नहीं है कि जो कर्म उत्पन्न हो गये हैं, तत्त्वज्ञान से उनका भी विनास होता है । जैसा कि दूसरे आगम के द्वारा कहा गया है कि बिना भोग के कर्मों का नाश नहीं होता है, चाहे सौ करोड़ कल्प ही क्यों न बीत जाय । (प्र०) ज्ञान से यदि कर्मों का नाश नहीं होता है, तो फिर कई हजार वर्षों से सश्चित कर्मों का नाश किससे होता है ? ( उ० ) भोग से और नाशक दूसरे कर्मों से ही ( उन सश्चित कर्मों का ) नाश होता है । ( प्र० ) कर्मनाश के लिए विहित कर्मों से अनन्तजन्मों से सश्चित कर्मों ( उ० ) ऐसी कोई बात नहीं है, का एक ही जन्म में विनाश किस प्रकार होगा ! कर्मक्षय के लिए काल का कोई नियम नहीं है । जिस
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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