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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६८४ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणनिरूपणे मोक्ष न्यायकन्दली रित्वे सत्यवश्यकरणीयान्यतिक्रमेत् प्रत्यवायोऽस्य प्रत्यहमुपचीयेत, तदुपचयाच्च बद्धो न मुच्यते । यथोक्तम् - यानि काम्यानि कर्माणि प्रतिषिद्धानि यान्यपि । तानि बध्नन्त्यकुर्वन्तं नित्यनैमित्तिकान्यपि ॥ इति । विहिताकरणमभावः, न चाभावो भावस्य हेतुरपि, अतो नास्मात् प्रत्यवायोत्पत्तिरिति चेत् ? न, विहिताकरणेऽन्यकरणात् प्रत्यवायस्य सम्भवात् । अभावस्य हि स्वातन्त्र्येण हेतुत्वं नेष्यते, न तु भावोपसर्जनतया। न च शरीरी सन्ध्यादिकाले कायेन वाचा मनसा वा किञ्चिन्न करोति, शरीरधारणादीनामपि करणात् । यथोक्तम् कर्मणां प्रागभावो यो विहिताकरणादिषु । न चानर्थकरत्वेन वस्तुत्वान्नापनीयते ।। स्वकाले यदकुर्वस्तत् करोत्यन्यदचेतनः। प्रत्यवायोऽस्य तेनैव नाभावेन स जन्यते ॥ इति । अभावेन केवलेन नासौ जन्यत इत्यर्थः। प्रतिषिद्धाचरणात् प्रत्यवायः, होता। यदि अधिकार रहने पर भी अपने अवश्य कर्तव्य (नित्य नैमित्तिक ) कर्मों का अनुष्ठान वे नहीं करते, फिर उनका प्रत्यवाय बढ़ता ही जाएगा। प्रत्यवाय को इस वृद्धि के कारण बद्ध पुरुष कभी मुक्त नहीं होगा । जैसा आचार्यों ने कहा है कि जितने भी काम्य, निषिद्ध, नित्य और नैमित्तिक कर्म हैं, सभी अनुष्ठान न करनेवाले अधिकारी को संसार में बाँधते हैं । (प्र०) विहित कर्मों का न करना अभाव पदार्थ है, अभाव किसी का कारण नहीं हो सकता, अतः विहित कर्मों के न करने से प्रत्यवाय की उत्पत्ति नहीं हो सकती। ( उ०) यह कोई बात नहीं है, जिस समय अधिकारी विहित कर्म का अनुष्ठान न करेगा उस समय कोई दूसरा कर्म तो करेगा ही, इस दूसरे कर्म ( रूप भाव पदार्थ) से ही प्रत्यवाय की उत्पत्ति होगी। अभाव स्वतन्त्र होकर ही किसी का कारण नहीं होता, किन्तु भाव पदार्थ रूप कारण का उपसर्जन तो होता ही है। जितने भी शरीरी हैं, वे सन्ध्यावन्दनादि के समय ( उसके न करने पर भी) शरीर से बचन से या मन से कोई न कोई काम अवश्य ही करते हैं। क्योंकि शरीर को धारण करना भी तो कर्म ही है, जैसा कि आचार्यों ने कहा है विहित कर्म का न करना यतः कर्मो का प्रागभाव है, अतः भाव पदार्थ न होने के कारण वह प्रत्यवाय के उत्पादन से सर्वथा विरत नहीं हो सकता, क्योंकि मूढ़ भी विहित कर्म के काल में उसे न करने पर भी अन्य कोई कर्म अवश्य ही करता है, उस दूसरे कर्म से प्रत्यवाय की उपत्ति होती है, विहिताकरण रूप प्रागभाव से ही नहीं। ___ अर्थात् केवल उक्त प्रागभाव से प्रत्यवाय की उत्पत्ति नहीं होती है। (प्र.) निषिद्ध कर्मों के आचरण से प्रत्यवाय होता है, शरीर धारण रूप कर्म तो निषिद्ध नहीं है, For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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