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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir RE प्रकरणम् भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली कृत्वा निवर्त्तते । निवर्त्यते संसारोऽनयेति निवृत्तिः, निवृत्तिलक्षणं यस्यासौ निवृत्तिलक्षणो निवृत्तिस्वभावो धर्मो रागादिनिवृत्तौ भूतायां केवलो व्यवस्थितः सन्तोषसुखं शरीरपरिच्छेदं चोत्पाद्य परमार्थदर्शनजमात्मदनिजं सुखं करोति, तत्कृत्वा निवर्तते। आभिमानिककार्यविनिरोधात् तदा निर्बोजस्यात्मनः शरीरादिनिवृत्तौ पुनः शरीराद्यनुत्पत्तौ दग्धेन्धनानलवदुपशमो मोक्षः । यदा परमार्थदर्शनं कृत्वा निवृत्तो धर्मः, तदा निर्बीजस्यात्मनः शरीरादिबीजधर्माधर्मरहितस्यात्मन उत्पन्नानां शरीरादीनां कर्मक्षयानिवृत्तौ भूतायामनागतानां कारणाभावादनुत्पत्तौ यथा दग्धेन्धनस्यानलस्योपशमः पुनरनुत्पादः, एवं पुनः शरीरानुत्पादो मोक्षः। इदं निरूप्यते। किं ज्ञानमात्रान्मुक्तिः ? उत ज्ञानकर्मसमुच्चयात् ? ज्ञानकर्मसमुच्चयादिति वदामः । निवृत्तेतराभिलाषस्य काम्यकर्मभ्यो निव. तस्यापि नित्यनैमित्तिककर्माधिकारो न निवर्त्तते, तानि ह्यपनीतं ब्राह्मणमात्रमधिकृत्य विहितानि । मुमुक्षुरपि ब्राह्मण एव, जातेरनुच्छेदात् । स यद्यधिकाव्युत्पत्ति के द्वारा निष्पन्न है (जिसका अर्थ है कि संसार की निवृत्ति जिससे हो)। इस प्रकार से निष्पन्न निवृत्ति शब्द के साथ 'लक्षण' शब्द का 'निवृत्तिर्लक्षणं यस्य असो निवृत्तिलक्षणः' इस प्रकार का समास है, अर्थात् निवृत्तिस्वभाव का जो धर्म वह रागादि की निवृत्ति होने पर केवल' अर्थात् व्यवस्थित हो जाता है । वह (केवल धर्म) सन्तोषसुख और शरीरसञ्चालन इन दोनों का उत्पादन कर 'परमार्थदर्शनजम्' अर्थात् आत्मज्ञान जनित सुख को उत्पन्न कर स्वयं भी निवृत्त हो जाता है, क्योंकि आभिमानिक सभी कार्यों का वह विरोधी है। 'तदा' इत्यादि सन्दर्भ से कहते हैं कि यह निवृत्तिस्वभाव का धर्म जब आत्मज्ञान जनित धर्म को उत्पन्न कर स्वयं निवृत्त हो जाता है 'तदा निर्बीजस्य' अर्थात् तब शरीरादि के उत्पादन के बीज प्रवृत्तिलक्षण धर्माधर्मादि से रहित आत्मा के शरीरादि का कर्मक्षय से नाश हो जाता है, और कारणों के न रहने से आगे होनेवाले शरीरादि की उत्पत्ति रुक जाती है। जिस प्रकार लकड़ी के जल जाने के बाद अग्नि का भी नाश हो जाता है, और पुनः उत्पत्ति भी नहीं होती है, उसी प्रकार शरीर का पुनः उत्पन्न न होना ही 'मुक्ति' है। अब इस विषय का विचार करते हैं कि केवल ज्ञान से ही मुक्ति होती है ? अथवा ज्ञान और कर्म दोनों मिलकर मोक्ष का सम्पादन करते हैं ? हम लोग तो कहते हैं कि ज्ञान और कर्म दोनों मिलकर ही मोक्ष का सम्पादन करते हैं। क्योंकि जिन्हें सांसारिक विषयों की अभिलाषा नहीं है, वे यद्यपि काम्य कर्म से निवृत्त हो जाते हैं, फिर भी वे अपने नित्य और नैमित्तिक कर्मों की अवश्यकर्तव्यता से मुक्त नहीं हो सकते, क्योंकि नित्य और नैमित्तिक कर्मों का विधान उपनीत सभी ब्राह्मणों के लिए किया गया है। मोक्ष के इच्छुक भी ब्राह्मण ही हैं, क्योंकि जाति का कभी नाश नहीं For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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