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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली सर्वगतत्वान्नित्यत्वाच्च वर्णानां क्रमभावः। अत एव नदीदीनेत्यादिष्वर्थभेदः, क्रमभेदात्। वर्णेषु क्रमो नास्ति स कथमेषामङ्गं स्यादिति चेन्न, तेषामुत्पत्तिभाजामव्याप्यवृत्तीनां देशकालकृतस्य पौर्वापर्यस्य सम्भवात् । यच्चेदमुक्तम् प्रत्येकशः समुदितानां च न सामर्थ्यमिति, तदपि न परस्य मतमालोचितम् । यद्यपि वर्णा अनवस्थायिनस्तथापि तद्विषयाः क्रमभाविनः संस्काराः संभूय पदार्थधियमातन्वते । यद्वा पूर्ववर्णवे ही वर्ण उसी विन्यास-क्रम से उग अर्थ के बोधक हैं।" अत एव इसी क्रमभंद के कारण नदं शब्द से और दोन शब्द से विभिन्न विषयक बोध होते हैं। (प्र०) वर्ण नित्य और व्यापक हैं, अतः उनका क्रम ही सम्भव नहीं है, फिर शब्दों का क्रम शब्द बोध का अङ्ग कैसे होगा ? (उ०) नहीं, ऐसी बात नहीं है, क्योंकि वर्ण उत्पत्तिशील हैं, और अव्याप्यवृत्ति हैं (अर्थात् अपने आश्रयीभूत आकाश में कहीं किसी प्रदेश में रहते हैं, और किसी प्रदेश में नहीं) अतः उनमें कालिक और दैशिक दोनों ही प्रकार के क्रम हो सकते हैं । यह जो कहा गया था कि (प्र०) पद या वाक्य घटक प्रत्येक वर्ष में अर्थबोध की हेतुता मानने से अवशिष्ट वर्गों का प्रयोग व्यर्थ हो जाएगा, एवं वर्गों के समुदाय में अर्थबोध की जनकता सम्भव नहीं है क्योंकि सभी वर्गों की कहीं एकत्र स्थिति ही सम्भव नहीं है फिर उनका समुदाय हो कैसा ? इस प्रकार वर्ण न प्रत्येकशः ही अर्थबोध के कारण हो गकते हैं, न समहापन्न होकर ही (अत: स्फोट हो अर्थबोध १. यहाँ मुद्रित न्यायक दलो पुस्तक का पाठ कुछ अशुद्ध और व्यत्यस्त मालूम पड़ता है। 'एवं प्राप्तेऽभिधीयते' इत्यादि वाक्यों से स्फोट का खण्डन और 'वाक्य से ही अर्थबोध की उत्पत्ति का सिद्धान्त' उपपादित हुआ है, जिसका उपसंहार ‘यावन्तो या हशा:' इत्यादि श्लोकवात्तिक के श्लोक को उद्धत कर किया गया है। इसके बाद 'सवंगतत्वान्नित्यत्वाच्च वर्णानां क्रमभाव.' ऐसी पङक्ति है। यहीं कुछ त्रुटि मालूम होती है, क्योंकि वर्णों का सर्वगतत्व उनके क्रमभाव का वाधक है, जिसका अनुपद ही 'क्रमो हि पौर्वापर्यम्' इत्यादि से उपपादन किया गया है। तदनुसार वर्णों का असर्वगतत्व और अनित्यत्व ये ही वर्गों के क्रमभाव के ज्ञापक होंगे। अतः उक्त पक्ति को यदि सिद्धान्तपक्षीय मानें तो 'सर्वगतत्वात्' इत्यादि पाठ के स्थान पर उसके विरुद्ध 'अनित्यत्वादसवंगतत्वाच्च वर्णानां क्रममावः' ऐसा पाठ मानना पड़ेगा। दूसरा उपाय वह है कि उक्त पङ्क्ति को सिद्धान्तपक्षीय न मान कर पूर्वपक्षीय ही मान लें, और उस वाक्य के 'क्रमभावः' इस पद को क्रमाभावः' में परिवर्तित कर दें। तदनुसार "सर्वगतत्वानित्यत्वाच्च वर्णानां क्रमाभाव: । अत एव" इतने अंश को 'वर्णेषु क्रमो नास्ति' इस पूर्वपक्षवाक्य के पहिले पाठ करें। एवं 'पावन्तो यादृशा ये च' इस श्लोक के नीचे सिद्धान्त पक्ष का 'नदीदीनेत्यादिधर्थ भेदः क्रमात इतना ही रक्खें । इनमें द्वितीय पक्ष के अनुसार ही मैंने अनुवाद किया है। For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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