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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६२६ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् प्रशस्तपादभाष्यम् थेषु शेषानुव्यवसायेच्छानुस्मरणद्वेषहेतुरतीतविषया स्मृतिरिति । होती है। ( स्मृतिजनक उक्त संस्कार ) अत्यन्तस्फुटज्ञान, अभ्यास और आदर से उत्पन्न होता है। वह ( स्मृति रूप ज्ञान ) अनुमिति, इच्छा, स्मृति और द्वेष का ( उत्पादक ) कारण है। न्यायकन्दली क्वचिच्चात्यन्ताश्चर्यतरे वस्तुनि सकृदुपलब्धे कालान्तरे स्मृतिदर्शनादादरग्रहणमपि संस्कारनिमित्तम् । दृष्टश्रुतानुभूतेष्विति विषयसङ्कीर्तनं कृतम् । दृष्टेष्विति प्रत्यक्षीकृतेषु, श्रुतेष्विति शब्दावगतेषु, अनुभूतेष्वनुमि. तेष्वित्यर्थः । शेषानुव्यवसायेच्छास्मरणद्वेषहेतुरिति कार्यनिरूपणम्। शिष्यते परिशिष्यते इति शेषः' । 'अनु' पश्चाद् व्यवसितिः व्यवसायः। शेषश्चासावनुव्यवसायश्चेति शेषानुव्यवसायः, प्रथमोपजातलिङ्गज्ञानापेक्षया तदनन्तर्भाव्यनुमेयज्ञानम्, तस्य हेतुाप्तिस्मरणम् । सुखसाधनत्वस्मृतिरिच्छाहेतुः। प्रथमसंस्कार की उत्पत्ति नहीं होती है। जैसे कि पढ़े हुए भी अनुवाक के अध्ययन से स्मृतिक्षमसंस्कार की उत्पत्ति होती है । इसकी पटुप्रत्यय को आवृत्ति' अर्थात् बार बार ग्रहणरूप 'अभ्यास' भी संस्कार का कारण है, क्योंकि अभ्यास के रहने पर ही अनुवाक का स्मरण होता है। किसी अत्यन्त अदभुत वस्तु को एक बार देखने पर बहुत समय बाद भी उसकी स्मृति होती है, अत: 'आदरपूर्वकग्रहण' भी संस्कार का कारण है । किन प्रकार की वस्तुओं की स्मृति होती है ? इस प्रश्न का उत्तर 'दृष्टानुभतेषु' इस वाक्य के द्वार दिया गया है । 'दृष्टेषु' अर्थात् प्रत्यक्ष के द्वारा ज्ञात वस्तुओं की, 'श्रुतेषु' अर्थात् शब्द प्रमाण के द्वारा ज्ञात विषयों को 'अनुभूतेषु' अर्थात् अनुमान प्रमाण के द्वारा ज्ञात विषयों की स्मृति उत्पन्न होती है, 'शेषानुव्यवसायेच्छास्मरणद्वेषहेतुः' इस वाक्य के द्वारा स्मृति से होने वाले कार्य दिखलाये गये हैं। प्रकृत 'शेष' शब्द 'शिष्यते परिशिष्यते इति शेषः' इस व्युत्पत्ति के द्वारा निष्पन्न है। एवं प्रकृत 'अनुव्यवसाय' शब्द 'अनु पश्चात् व्यवसितिरनुव्यवसायः' इस व्युत्पत्ति से निष्पन्न है । एवं शेषानुव्यवसाय' शब्द 'शेषश्चानुव्यवसायश्च' इस (कर्मधारय ) समास से बना है। फलतः प्रकृत में 'शेष' और 'अनुव्यवसाय' ये दोनों शब्द एक ही अर्थ के बोधक हैं । ( वह अर्थ है) अनुमेय का ज्ञान ( अनुमिति ), क्योंकि ( अनुमिति के लिए प्रथम लिङ्गदर्शन से जो ज्ञानों की परम्परा है उसमें ) उक्त प्रथम लिङ्ग की अपेक्षा अनुमेयज्ञान अर्थात् साध्य का ज्ञान ही 'शेष' है अर्थात् अन्तिम है, एवं वह 'अनुव्यवसाय' भी है, क्योंकि लिङ्गज्ञान रूप व्यवसाय के बाद उत्पन्न होता है। इस प्रकार शेषानुव्यवसाय भी अर्थात् अनुमिति भी स्मृति का कार्य हैं, क्योंकि उक्त शेषानुव्यबसाय की उत्पत्ति व्याप्ति की स्मृति से होती है। किसी भी वस्तु में 'इससे सुख होगा' इस प्रकार की स्मृति के रहने पर उस विषय की इच्छा उत्पन्न होती है, अतः स्मृति इच्छा का भी कारण For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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