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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ६१६ www.kobatirth.org यथोक्तम्— न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् न्यायकन्दली Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir वस्तुवृत्त्योपपद्यते तावानर्थी वचनेन प्रतिपादनीयः, न प्रतिपत्तृविशेषानुरोधेन तितव्यम् । [ गुणेऽनुमानेऽवयव वस्तु प्रत्यभिधातव्यम् सिद्धार्थो न परान्। प्रति 1 को हि विप्रतिपन्नायास्तद्बुद्धेरनुधावति उपसंहरति-तस्मादत्रैवार्थपरिसमाप्तिरिति । यस्मान्निगमने सति हेतोः समग्रं सामर्थ्यं प्रतीयते तस्मादत्रैव निगमने अर्थस्य साध्यस्य परिसमाप्तिः प्रतीतिपर्यवसानम् । यद्वैवं योजना, यस्मान्निगमनमन्तरेण विपरीतप्रमाणाभावो नावगम्यते, तस्मादेतस्मिन्नेवार्थस्य सम्यग् हेतुसामर्थ्यस्य परिसमाप्तिः पर्यवसानमिति । प्रत्येकमुक्तमेवावयवानां रूपमेकत्र संहृत्य प्रश्नपूर्वकं कथयति--कथमित्यादिना । किं शब्दो नित्यः किं वा अनित्य इत्यन्यतरधर्मजिज्ञासायां प्रतिज्ञावचनेनानिश्चितेनानित्यत्वमात्रेण विशिष्टः शब्दः कथ्यते 'अनित्यः' की जितनी शक्ति है, उसके अनुसार उन उन जगहों में अलग अलग संख्या के वाक्यों का प्रयोग किया जाय । जैसा कहा गया है कि "दूसरों को किसी वस्तु को समझाने के लिए 'सिद्धार्थ वाक्य' का ( अर्थात् जितने वाक्यों से उस अर्थ की सिद्धि की सम्भावना हो उन सभी वाक्यों का ) प्रयोग करना चाहिए ( समझनेवाले अनुसार वाक्यों का प्रयोग नहीं करना चाहिए क्योंकि ) अनुगमन कौन कर सकता है ?" For Private And Personal पुरुष की बुद्धि के बोद्धा की विविध बुद्धियों का 'तस्मादत्रं वार्थपरिसमाप्ति:' इस वाक्य से इस प्रसङ्ग का उपसंहार करते हैं । यतः निगमन वाक्य के प्रयोग के होने पर ही हेतु के पूर्ण सामर्थ्य की प्रतीति होती है ' तस्मादत्रैव' अर्थात् अतः 'यहीं' निगमनवाक्य में ही 'अर्थ' को अर्थात् साध्य की 'परिसमाप्ति' अर्थात् प्रतीति की अन्तिम परिणति होती है । अथवा 'तस्मात्' इत्यादि उपसंहार वाक्य को इस प्रकार लगाना चाहिए कि यतः निगमन के बिना विपरीत प्रमाण की असत्ता की प्रतीति नहीं होती है 'तस्मात् ' निगमनवाक्य में ही 'अर्थ' की अर्थात् सद्धेतु के सामर्थ्य की परिसमाप्ति' अर्थात् पर्यवसान ( अन्तिम परिणति ) होता है । अलग अलग कहे गए प्रत्येक अवयव के स्वरूप को एक स्थान में संग्रह कर प्रश्नोत्तर रूप से 'कथम्' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा कहते हैं । शब्द के प्रसङ्ग में नित्यत्व और अनित्यत्व इन दोनों में से 'यह नित्य है ? अथवा अनित्य ?" इस प्रकार की एक ही आकाङ्क्षा उठती है । उसी के शमन के लिए 'अनित्यः शब्द:' इस आकार का प्रतिज्ञावाक्य प्रयुक्त होता है, जिससे 'शब्द उस अनित्यत्व रूप धर्म से युक्त है, जो अनिश्चित है' इस आकार का बोध होता है । 'शब्द अनित्य ही है' इसमें क्या हेतु है ?
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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