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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६०२ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणेऽनुमाने निदर्शन न्यायकन्दली गतोऽयं निदर्शनाभासः। यद् द्रव्यं तत् क्रियावद् दृष्टमिति विपरीतानुगतः, द्रव्यं वायुः क्रियावत्त्वादित्यत्रापि व्याप्यं क्रियावत्त्वं व्यापकं च द्रव्यत्वम् । यच्च व्याप्यं तदेकनियता व्याप्तिर्न संयोगवदुभयत्र व्यासज्यते, व्यापकस्य व्याप्यव्यभिचारात् । यत्रापि समव्याप्तिके कृतकत्वानित्यत्वादी व्याप्यस्यापि व्यापकत्वमस्ति, तत्रापि व्याप्यत्वरूपं समाश्रित्यैव व्याप्तिर्न व्यापकत्वरूपाश्रयत्वात्, व्यभिचारिण्यपि तद्रूपस्यापि सम्भवात् । यथोपदिशन्ति गुरवः व्यापकत्वगृहीतस्तु व्याप्यो यद्यपि वस्तुतः। आधिक्येऽप्यविरुद्धत्वाद् व्याप्यं न प्रतिपादयेत् ॥ इति । (६) 'द्रव्यं वायुः क्रियावत्त्वात! इस अनुमान के लिए अगर कोई 'यद्रव्यं तत् क्रियावद् दृष्टम्' इस प्रकार ('यत् क्रियावत् तत् द्रव्यं दृष्टम्' इस प्रकार से निदर्शन वाक्य प्रयोग न करके ) उसके विपरीत वाक्य का कोई प्रयोग करे, तो वह निदर्शन न होकर 'विपरीतानुगत' नाम का निदर्शनाभास होगा। क्योंकि इस अनुमान में 'क्रियावत्व' हेतु है, अत: वही व्याप्य है, एवं साध्य होने के कारण द्रव्यत्व ही व्यापक है । अनुमान की उपयोगी व्याप्ति केवल व्याप्त (हेतु) में ही रहती है, व्यापक (साध्य) में नहीं । एक ही व्याप्ति संयोग की तरह व्यापक और व्याप्य अपने दोनों सम्बन्धियों में व्याप्त होकर रहनेवाली वस्तु नहीं है। क्योंकि (साध्य ) व्यापक में व्याप्य ( हेतु) की व्याप्ति नहीं (भी) रहती है, क्योंकि साध्य हेतु के बिना भी देखा जाता है। जिन रामव्याप्तिक (जिस अनुमान के साध्य और हेतु दोनों समान आश्रयों में हों, साध्य का आश्रय हेतु के आश्रय से अधिक न हो) स्थलों में जैसे कि 'घटोऽनित्यः कृतकत्वात्' इत्यादि अनुमान के कृतकत्व हेतु में व्याप्यत्व की तरह साध्य का व्यापकत्व भी है, फिर भी कृतकत्व हेतु में जो अनित्यत्व रूप साध्य की व्याप्ति है, वह इसी कारण है कि वह साध्य का व्याप्य है। इसलिए कृतकत्व हेतु में अनित्यत्व रूप साध्य की व्याप्ति नहीं है कि कृतकत्व रूप हेतु अत्यित्व रूप साध्य का व्यापक है। अगर साध्य के व्यापक होने के कारण ही साध्य की व्याप्ति हेतु में माने तो ( 'धूमवान् वह्नः' इत्यादि ) व्यभिचारी स्थलों के हेतुओं में भी साध्य की व्याप्ति माननी होगी। क्योंकि व्याप्ति के प्रयोजक साध्य का व्यापकत्व तो वहाँ भी है ही ( वह्नि धूम का व्यापक है ही)। जैसा कि गुरुचरणों का उपदेश है कि :-( किसी ) व्याप्य ( हेतु ) में भी साध्य की व्यापकता वस्तुतः रहने पर भी, वह हेतु व्यापक होने के कारण व्याप्य का ( अपने से व्याप्य साध्य का केवल उसके व्याप्य होने के कारण ) ज्ञापन नहीं कर सकता, क्योंकि साध्य को व्यापकता ( केवल समव्याप्त हेतु में ही नहीं, किन्तु ) साध्य से अधिक स्थानों में रहनेवाले ( व्यभिचारी ) हेतु में भी है । For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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