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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५६४ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणेऽनुमानेऽवयव न्यायकन्दली भवन्तः, ताभ्यां चेत् परस्परान्वितः स्वार्थोऽभिहित: कस्तदन्यः पदार्थो यः पदेन पश्चात् स्मर्यते ? तदेतदास्तां नग्नाटकपक्षपतितं वचः । प्रकृतमनुसरामः-अस्त्वेवं पदानामर्थप्रतिपादनम्, इदं तु न सङ्गच्छते परार्थानुभानमिति । लिङ्ग तज्जनितं वा ज्ञानमनुमानम्। न च लिङ्गस्य ज्ञानस्य च परार्थत्वम् । अनुमानवाचकस्य शब्दस्य परार्थत्वादनुमानं परार्थ. मुच्यते चेत् प्रत्यक्षवाचकस्यापि शब्दस्य परार्थत्वात् प्रत्यक्षमपि परार्थमुच्येत ? तदुक्तम् ज्ञानाद् वा ज्ञानहेतोर्वा नान्यस्यास्त्यनुमानता। तयोश्च न परार्थत्वं प्रसिद्ध लोकवेदयोः ।। वचनस्य परार्थत्वादनुमानपरार्थता । प्रत्यक्षस्यापि पारायं तदद्वारं किं न कल्प्यते ॥ इति । दूसरे अर्थ के साथ अन्वित ही अपने स्वार्थ का अभिधायक होगा। यदि प्रकृति और प्रत्यय ये दोनों ही एक दूसरे के साथ अन्वित अपने अर्थ का प्रतिपादन कर ही देते हैं, तो फिर कोन सा विलक्षण अर्थ समझने को अवशिष्ट रहता है, जिसका स्मरण पीछे पद के द्वारा होता है ? व्यर्थ बातों की यह प्रक्रिया अब यहीं तक रहे । _अब फिर प्रकृत विषय का अनुसरण करते हैं। (प्र. ) मान लिया कि पदो से अर्थों का प्रतिपादन उसी ( अभिहितान्वयवादियों की ) रीति से होता है, किन्तु यह समझ में नहीं आता कि अनुमान 'परार्थ' किस प्रकार है ? क्योंकि हेतु या पञ्चावयव. वाक्य जनित हेतु का ज्ञान इन दोनों में से ही कोई ‘अनुमान' है। इनमें से न लिङ्ग ही परार्थ है, न लिङ्ग का ज्ञान हो । यदि यह कहें कि (उ०) उक्त लिङ्ग या लिङ्ग ज्ञान के वाचक (पञ्चावयव के) शब्द चूँकि परार्थ हैं ( अर्थात् दूसरे को समझाने के लिए प्रयुक्त होते हैं ) अतः हेतु या हेतुज्ञान रूप अनुमान को भी परार्थ कहा जाता है। (प्र०) तो फिर प्रत्यक्ष के अभिधायक शब्द का भी प्रयोग तो दूसरे को समझाने के लिए ही किया जाता है। अतः प्रत्यक्ष भी 'परार्थ' होगा। जैसा कहा गया है कि (१) हेतु का ज्ञान या हेतु इन दोनों से भिन्न कोई अनुमान नहीं हो सकता। इन दोनों की परार्थता न लोक में ही प्रसिद्ध है न वेद में ही। (२) यदि हेतु के ज्ञापक या हेतु ज्ञान के अभिलापक वाक्य दूसरों को समझाने के लिए प्रयुक्त होते हैं, इस हेतु से लिङ्ग या लिङ्गज्ञान रूप अनुमान परार्थ हैं, तो फिर प्रत्यक्ष प्रमाण के बोधक वाक्य भी तो दूसरों को समझाने के लिए ही प्रयुक्त होते है, इस हेतु से ( अनुमान की तरह ) प्रत्यक्ष को भी परार्थ क्यों नहीं मानते ? For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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