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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५५६ प्रकरणम् । भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली तस्य पञ्चावयवेन वाक्येन प्रतिपादनं तत्प्रतिपत्तिजननसमर्थपञ्चावयववाक्यप्रयोगः परार्थानुमानम् । पञ्चावयवं हि वाक्यं यावत्सु रूपेषु लिङ्गस्य साध्या. विनाभावः परिसमाप्यते तावद्रूपं लिङ्ग प्रतिपादयति । तत्प्रतिपादिताच्च लिङ्गात् साध्यसिद्धिः । न वाक्यमेव साध्यं बोधयति, तस्य शाब्दत्वप्रसङ्गात् । तस्मादविनाभूतलिङ्गाभिधायकवाक्यप्रयोग एव परार्थानुमानमुच्यते । अपरे तु यत्परः शब्दः स शब्दार्थः, वाक्यं च साध्यपरम्, तत्प्रतिपादनार्थमस्य प्रयोगात् । लिङ्गप्रतिपादनं त्ववान्तरव्यापारः, वचनमात्रेण विप्रतिपन्नस्य साध्यप्रतीतेरभावादिति वदन्त एवं व्याचक्षते-स्वनिश्चितार्थः साध्यः, तस्य लिङ्गप्रतिपादनमेवावान्तर व्यापारीकृत्य पञ्चावयवेन वाक्येन प्रतिपादनं तत्प्रतिपादकवाक्यप्रयोगः परार्थानुमानमिति ।। स्वोक्तं विवृणोति-पञ्चावयवेनैवेत्यादिना । द्वयवयवमेव वाक्य अनुसार साध्य को व्याप्ति से युक्त वस्तु हो (प्रकृत वाक्य में प्रयुक्त ) 'स्वनिश्चित' शब्द का अर्थ है । उस ( स्वनिश्चित अर्थ रूप साध्यव्याप्त हेतु ) का पञ्चावयव वाक्य के द्वारा जो 'प्रतिपादन' अर्थात् साध्य की व्याप्ति से युक्त हेतु विषयक बोध के उत्पादन में क्षम पञ्चावयव वाक्य का प्रयोग, वही परार्थानुमान है। जिन धर्मों के द्वारा हेतु में साध्य की व्याप्ति पूर्ण रूप से समझी जाती है, उन धर्मों से युक्त हेतु का ही प्रतिपादन पञ्चावयव वाक्य से होता है। पञ्चावयव वाक्य के द्वारा प्रतिपादित उक्त हेतु से ही साध्य का बोध ( अनुमिति ) होता है, साक्षात् पञ्चावयव वाक्य से साध्य की अनुमिति नहीं होती है, यदि ऐसी बात हो तो साध्य का उक्त बोध अनुमिति न होकर शाब्दबोध हो जाएगा। अतः साध्य की व्याप्ति से युक्त हेतु के बोधक पञ्चावयव वाक्यों के प्रयोग को ही 'परार्थानुमान' कहा जाता है । दूसरे सम्प्रदाय के कुछ लोग कहते हैं कि जिस विषय को समझाने के लिए जिस शब्द का प्रयोग किया जाता है, वही विषय उस शब्द का अर्थ होता है । पञ्चावयव वाक्य साध्य को समझाने के लिए हो प्रयुक्त होता है, अतः साध्य ही पञ्चावयव वाक्य रूप शब्द का प्रतिपाद्य अर्थ है। चूंकि केवल पञ्चावयव रूप वाक्य के प्रयोग से भ्रान्त व्यक्ति को साध्य का बोध नहीं होता है, अतः मध्यवर्ती व्यापार के रूप में (साध्यव्याप्य हेतु का ज्ञान ) आवश्यक होता है। ये लोग प्रकृत वाक्य की व्याख्या इस प्रकार करते हैं कि साध्य ही प्रकृत 'स्वनिश्चितार्थ' शब्द से अभिप्रेत है। इसी 'साध्य' का प्रतिपादन पञ्चावयव वाक्य से ( मुख्यतः) होता है । इतना अवश्य है कि इस काम के लिए उसे साध्यव्याप्यहेतुज्ञान को बीच का व्यापार मानना पड़ता है। अतः साध्य के ज्ञापक पञ्चावयव वाक्यों का प्रयोग ही 'परार्थानुमान है। 'पञ्चावयबेनैव वाक्येन' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा भाष्यकार ने अपने 'पञ्चावयवेन वाक्येन' इत्यादि अनी ही पङ्क्ति की व्याख्या की हैं। किसी सम्प्रदाय के लोग For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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