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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ૪ર www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir न्याय कन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणेऽनुमानेऽभावप्रमाणान्तर्भाव प्रशस्तपादभाष्यम् सम्भवोऽप्य विनाभावित्वादनुमानमेव । अभावोऽप्यनुमानमेव, यथोत्पन्नं कार्य कारणसद्भावे लिङ्गम्, ‘सभ्भव' प्रमाण से भी व्याप्ति के द्वारा ही अर्थ का बोध होता है, अत: वह भी अनुमान ही है । अभाव प्रमाण भी अनुमान के ही अन्तर्गत है, क्योंकि जिस न्यायकन्दली स्परविरोध इति तयोः प्रतीतिरप्रतीतिर्भवति । तस्मादर्थप्रतीत्यैवोपपन्नः शब्दो न शब्दान्तरमपेक्षते, कर्तव्यतान्तराभावात् । अर्थ एव तु तेनाभिहितोऽर्थान्तरेण विनानुपपद्यमानः प्रतीत्यनुसारेण स्वोपपत्तये मृगयतीत्यव्याहतं शब्दश्रवणादनुमितानुमानमिति । शतं सहसे सम्भवतीति सम्भवाख्यात् प्रमाणान्तरात् सहस्रेण शतज्ञानमिति केचित् । तन्निरासार्थमाह-सम्भवोऽप्यविनाभावित्वादनुमानमेव । सहस्रं शतेनाविनाभूतम्, तत्पूर्वकत्वात् । तेन सहस्राच्छतज्ञानमनुमानमेव । प्रमेयाभावप्रतीत भावग्राहक प्रत्यक्षादिपञ्चप्रमाणानुत्पत्तिरभावाख्यं प्रमाणान्तरं कैश्चिदिष्टम् । तद् व्युदस्यति - अभावोऽप्यनुमानमेव । कथमित्यत ठीक नहीं है । अतः 'पीनो दिवा न भुङ्क्ते' इत्यादि शब्द यदि दिन में न खानेवाले में 'पीनत्वादि' रूप अपने अर्थ को अभ्रान्त और निःशङ्क रूप से समझा देते हैं, तो फिर वे अपना कर्त्तव्य कर ही लेते हैं, क्योंकि उन शब्दों का उन अर्थों को समझाना छोड़कर दूसरा कोई कर्त्तव्य नहीं है । अपने इस कार्य के सम्पादन के लिए उन्हें 'रात्री भुङ्क्ते' इत्यादि किसी दूसरे शब्द की न खानेवाले की पीनता रूप अर्थ ही रात्रि अपनी उपपत्ति के लिए उस दूसरे अर्थ की शब्द के श्रवण के बाद जो रात्रि भोजन रूप अर्थ का नुमान' ही है। इसमें किसी प्रकार का विरोध नहीं है । 'हजार में सौ के रहने की सम्भावना है' इस प्रकार के सम्भव नाम के स्वतन्त्र प्रमाण से ही कोई सम्प्रदाय सहस्र संख्या से सौ संख्या का ज्ञान मानते हैं | उनका खण्डन करने के लिए ही 'सम्भवोऽप्यविनाभावादनुमानमेव' यह वाक्य लिखा गया है । अभिप्राय यह है कि सहस्र में सो की व्याप्ति रूप सम्बन्ध के द्वारा हो उक्त ज्ञान होता है, अतः का ज्ञान होता है, वह भी अनुमान ही है । अपेक्षा नहीं है । तस्मात् दिन में भोजन रूप दूसरे अथ के बिना अनुपपन्न होकर खोज करता है, अतः 'दिवा न भुङ्क्ते' इस बोध होता है, वह 'अनुमिता किसी सम्प्रदाय के लोग किसी वस्तु के अभाव की प्रतीति के लिए एक 'अभाव' नाम का और प्रमाण मानते हैं । एवं इस अभाव को भाव पदार्थों के ग्राहक प्रत्यक्षादि पाँच For Private And Personal व्याप्ति रूप सम्बन्ध है । इस सहस्र संख्या से जो शत संख्या
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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