SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 592
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra प्रकरणम् ] www.kobatirth.org भाषावादसहितम् न्यायकन्दली Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५१७ सम्बन्ध इति चेत् ? शब्दस्यैकस्य देशभेदेन नानार्थेषु प्रयोगात् । यत्रायमायैः प्रयुज्यते तत्रास्य वाचकत्वम्, इतरत्र सङ्केतानुरोधात् प्रवृत्तस्य लिङ्गत्वमिति चेत् ? न तुल्य एव तावच्चीरशब्दस्तस्करे भक्ते च प्रतीतिकरः, तत्रास्य तस्करे वाचकत्वं भक्ते च लिङ्गत्वमिति नास्ति विशेषहेतुः । आर्याणामपि चौरशब्दादर्थप्रतीतिः लिङ्गपूर्विका, चौरशब्दजनितप्रतिपत्तित्वात्, उभयाभिमतदाक्षिणात्य प्रयुज्यमानचौरशब्दजनितप्रतिपत्तिवत् । न च स्वाभाविकसम्बन्धसद्भावे प्रमाणमस्ति । शब्दस्य वाच्यनिष्ठा स्वाभाविकी वाचकशक्तिरेवोभयत्र दत्तपदत्वात् सम्बन्ध इत्युच्यते इति । सम्बन्धः " भवद्भिः । तथा चोक्तम् - "शक्तिरेव हि शब्दशक्तेश्च स्वभावादेव वाच्यनिष्ठत्वे व्युत्पन्नवदव्युत्पन्नोऽपि शब्दादर्थं यदि वर्ष के साथ असम्बद्ध शब्द को ही अर्थ का बोधक मानें तो फिर ( घट पद से पट बोध की आपत्ति रूप ) अतिप्रसङ्ग होगा, अतः शब्द का अर्थ के साथ स्वाभाविक ( शक्ति रूप ) सम्बन्ध की कल्पना करते हैं । ( उ० ) यह सम्भव नहीं है, क्योंकि एक ही शब्द का विभिन्न अर्थों के बोध के लिए प्रयोग होता है । ( प्र० ) जिस अर्थ में आर्यलोग जिस शब्द का प्रयोग करते हैं, उस अर्थ का तो वह शब्द वाचक है अर्थात् उस अर्थ में उस शब्द का स्वाभाविक सम्बन्ध है ) । उससे भिन्न जिन अर्थों में केवल सङ्केत से ही शब्द प्रवृत्त होता है, वहाँ वह (धूम की तरह) ज्ञापक लिङ्ग है । उ० ) यह भी कहना सम्भव नहीं है, क्योंकि एक ही 'चौर' शब्द चोर और भात दोनों का समान रूप से दोनों अर्थों में से चौर रूप अर्थ का तो चौर शब्द को वाचक माने और भात रूप अर्थ का उसे ( बोधक है । इन For Private And Personal बोधक लिङ्ग माने, इसमें विशेष युक्ति नहीं है । ( इससे यह अनुमान निष्पन्न होता दाक्षिणात्यों के द्वारा प्रयुक्त 'चोर' है कि ) जिस प्रकार दोनों पक्ष यह मानते हैं कि शब्द से भात रूप अर्थ की प्रतीति उक्त शब्द रूप लिङ्ग से उत्पन्न ( होने का कारण अनुमिति रूप होती) है, उसी प्रकार आर्यों के द्वारा प्रयुक्त चौर शब्द से तस्कर की प्रतीति भी चौर शब्द रूप लिङ्ग से ही होती है, क्योंकि यह प्रतीति भी चोर शब्द से उत्पन्न होती है । इसमें कोई प्रमाण भी नहीं है कि शब्द और अर्थ दोनों में कोई स्वाभाविक सम्बन्ध है, क्योंकि केवल शब्द में ही रहनेवाला जो वाच्य (अर्थ) का वाचकत्व सम्बन्ध है, उसी सम्बन्ध को अर्थ और शब्द दोनों में और केवल शब्द में रहनेवाले उस सम्बन्ध को ही आप ( मीमांसक लोग दोनों का 'सम्बन्ध' कहते हैं । जैसा कहा गया है कि 'शक्ति ही सम्बन्ध है' । शब्द के शक्ति रूप सम्बन्ध को यदि स्वाभाविक रूप से ही वाच्य अर्थ में भी मान लें तो फिर जिस प्रकार व्युत्पन्न (अर्थ में शब्द कल्पना कर लेते हैं, )
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy