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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५१६ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ गुणेऽनुमाने शब्दान्तर्भाव न्यायकन्दली भ्रान्त्या विप्रलम्भधिया वार्थशून्यस्य शब्दस्य प्रयोगात् । आप्तोक्ताच्छब्दादर्थप्रतीतिरिति चेत् ? आप्ताभिप्रायादेवार्थस्याधिगतिरिति समानार्थः । यस्तु सत्यपि लिङ्गत्वे देशविशेष शब्दस्यार्थ(स्य) व्यभिचारो न धूमस्य, तत्रैष न्यायः। धूमः स्वाभाविकेन सम्बन्धेनाग्नेलिङ्गम् । शब्दस्तु चेष्टावत् पुरुषेच्छाकृतेन सङ्केतेन प्रवर्तमानो यत्र यत्रार्थे पुरुषेण सङ्केत्यते तस्य तस्यैवार्थस्य विवक्षावगतिद्वारेण लिङ्गम् । अत एवास्मादाप्तप्रयुक्तत्वानुसारेण चेष्टादिवत् तावदर्थनिश्चये सातत्योर्ध्वगत्यादिधर्मविशिष्टस्येव धूमस्याप्तोक्तस्यैव शब्दस्यार्थाव्यभिचारसम्भवात् । शब्दस्यार्थप्रतिपादनं मुख्यया वृत्त्या किं न कल्प्यते ? सम्बन्धाभावात्, असम्बद्धस्य गमकत्वे चातिप्रसङ्गात् । अस्ति स्वाभाविकः ( को अलग प्रमाण मान लेने ) से ही अर्थ की सिद्धि क्यों कर होगी? क्योंकि अभिधा की भ्रान्ति से अथवा श्रोता को ठगने के लिए ऐसे शब्दों का भी प्रयोग होता है, जिनके वे अर्थ सम्भावित नहीं रहते। (प्र०) आप्तजनों के द्वारा उच्चरित शब्द से ही अर्थ को प्रतीति होती है । ( उ० ) इसके बदले यह भी तो कह सकते हैं कि आप्तपुरुष के द्वारा प्रयुक्त शब्द के श्रवण से श्रोता को उनके अभिप्राय का बोध होता है, एवं उस अभिप्राय से अर्थ विषयक अधिगति (अनुमिति) होती है। यह जो कहा गया है कि "शब्द यद्यपि अर्थ का (ज्ञापक) लिङ्ग है, किन्तु किसी विशेष प्रकार के देश में शब्द का भी अर्थ के साथ व्यभिचार उपलब्ध होता है, किन्तु धूम में वह्नि का व्यभिचार कहीं भी उपलब्ध नहीं होता, ( अतः धूम से वह्नि का अनुमान होता है, किन्तु शब्द से अर्थ का अनुमान नहीं हो सकता )" । इस प्रसङ्ग में यह युक्ति है कि धूम ( संयोग रूप ) स्वाभाविक सम्बन्ध से वह्नि का ज्ञापक हेतु है, किन्तु शब्द में यह बात नहीं है । जिस प्रकार पुरुषकृत सङ्कत के द्वारा तर्जन्यादि के विशेष विन्यास रूप चेष्टा से दश संख्या का अनुमान होता है, उसी प्रकार शब्द भी पुरुष की बोधनेच्छा रूप सङ्केत के द्वारा ही अर्थबोध के लिए प्रवृत्त होता है । अतः पुरुष का सङ्केत जिन अर्थों में जिन शब्दों का रहता है, उन्हीं अर्थों के वे शब्द विवक्षा के बोध के द्वारा ज्ञापक लिङ्ग होते हैं । जिस प्रकार चेष्टा रूप हेतु से (बनियों के सङ्कत के द्वारा दश संख्या प्रभृति ) अर्थों का बोध होता है, उसी प्रकार शब्दों से उसके आप्तोक्तत्व के कारण ही अर्थ का बोध होता है । अत एव जिस प्रकार अविच्छिन्नमूला एवं ऊर्ध्वमुखी रेखा से युक्त धूम में वह्नि का अव्यभिचार सम्भव होता है, उसी प्रकार आप्त से उच्चरित शब्द में भी अर्थ का अव्यभिचार (व्याप्ति) भी सम्भव है।। __ (प्र०) अभिधा रूप मुख्य वृत्ति से ही शब्द के द्वारा अर्थ का प्रतिपादन क्यों नहीं मान लेते ? (उ.) चूंकि शब्द को अर्थ के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। (प्र.) For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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