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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ५०६ www.kobatirth.org न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् न्यायकन्दली Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ गुणे अनुमान च विकासस्य तत्काल सन्निहितकारणाधीन कर्मजन्यत्वादित्यादि वाच्यम् । शरदि जलप्रसादोऽगस्त्योदयस्य प्रसादो वैशद्यम्, तच्छरदि प्रतीयमानमगस्त्योदयस्य लिङ्गम्, न कालान्तरे, व्यभिचारात् । कार्यादिव्यतिरिक्तमपि यदि लिङ्गमस्ति तर्हि नूनं तत्र सर्वलिङ्गानामनवरोधादत आह - एवमादि तत् सर्वमस्येदमिति सम्बन्धमात्रवचनात् सिद्धमिति । अध्वर्युरो श्रावयतीत्येवमादिपदाविनाभूतं लिङ्गं तत् सर्वमस्येदमितिपदेन सम्बन्धमात्रवचनात् सिद्धं परिगृहीतम् । अर्थान्तरमर्थान्तरस्य लिङ्गमिति न युज्यते ( इति ) प्रसक्तिः स्यादिति पर्यनुयोगमाशङ्कयेदमुक्तं सूत्रकारेणास्येदमिति । लिङ्गमित्यन्यत्वाविशेषेऽप्यस्य साध्यस्येदं सम्बन्धीति कृत्वा अस्येदं लिङ्गं न सर्वस्येति सामान्येन सम्बन्धिमात्रस्य लिङ्गत्वप्रतिपादनात् । यद् यस्य अपने कारणों से उत्पन्न अतः चन्द्रमा का उदय लिङ्गम् ' ( इस वाक्य उसके पत्रों का एक दूसरे से विभाग, ये दोनों ही उस समय होनेवाले कर्मों से ही उत्पन्न होंगे ( चन्द्रमा की वृद्धि से नहीं, समुद्रवृद्धि का कार्य भी नहीं है ) । ' शरदि जलप्रसादोऽगस्त्योदयस्य में प्रयुक्त ) 'प्रसाद' शब्द का अर्थ है वैशद्य ( स्वच्छता ), यह वैशद्य शरद् ऋतु में ( ही ) ज्ञात होकर अगस्त्य नाम के नक्षत्र के उदय का ज्ञापक लिङ्ग होता है, अन्य ऋतु में ज्ञात होने पर भी नहीं, क्योंकि व्यभिचार देखा जाता है ( अर्थात् ग्रीष्मादि ऋतुओं में जल में स्वच्छता का भान होने पर भी अगस्त्योदय की प्रतीति नहीं होती ) है । For Private And Personal ( प्र० ) ( यदि साध्य के ) कार्यादि न होने पर भी कोई हेतु साध्य का ज्ञापक हो सकता है, तो फिर 'अस्येदं कार्यम्' इत्यादि सूत्र के द्वारा लिङ्ग के जिन प्रकारों का उल्लेख किया गया है, उनसे सभी हेतुओं का संग्रह नहीं होता है ? ( जिससे सूत्रकार की न्यूनता होती है ) इसी प्रश्न का समाधान भाष्यकार ने 'एवमादि' इत्यादि भाष्यसन्दर्भ के द्वारा दिया है । ' एवमादि' अर्थात् साध्य के कार्यादि से भिन्न और सभी हेतु उक्त सूत्र के 'अस्येदम्' इस सम्बन्धबोधक वाक्य के द्वारा संगृहीत होते हैं । अभिप्राय यह है कि 'अध्वर्युरों श्रावयति' इत्यादि वाक्यों के द्वारा जिन हेतुओं का उल्लेख किया गया है। वे सभी हेतु उक्त सूत्र के ही अस्पदम्' इस सम्बन्धबोधक वाक्य के द्वारा 'सिद्ध' हैं, अर्थात् संगृहीत हैं । किन्तु " अर्थान्तर ( साध्य के कार्यत्वादि सम्बन्धों से रहित कोई भी श्र अर्थान्तर का ( अर्थात् हेतु के कारणत्वादि सम्बन्धों से शून्य किसी दूसरे अर्थ का ) साधक हेतु नहीं हो सकता" उक्त सूत्र में कार्यत्वादि सम्बन्धों के उल्लेख से इस अवधारण को स्थिति हो जाएगी । इस अभियोग की सम्भावना को हटाने के लिए हो सूत्रकार ने उक्त सूत्र में ( कार्यत्वादि सम्बन्धों के बोधक वाक्यों के अतिरिक्त ) 'अस्येदम् ' इस वाक्य का भी प्रयोग किया है । 'इतरस्य लिङ्गम्' इत्यादि भाष्य के द्वारा लिङ्ग का भेद और सभी पदार्थों ( साध्यों ) में समान रूप से का सम्बन्ध इसी हेतु में है, इस नियम के रहने पर भी ' इस साध्य अनुसार यह नियम भी उपपन्न होता है
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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