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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५०४ भ्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे अनुमान प्रशस्तपादभाष्यम् धारणार्थम्, कस्मात् ? व्यतिरेकदर्शनात् । तद्यथा अध्वर्युरों श्रावयन् व्यवहितस्य होतुर्लिङ्गम्, चन्द्रोदयः समुद्र वृद्धः कुमुदविकासस्य च केवल उदाहरण के लिए ही है, अवधारण के लिए नहीं। क्योंकि ( कथित कार्यत्वादि सम्बन्धों में से किसी के न रहने पर भी अनुमान होता है ) जैसे कि ओंकार को सुनाते हुए अध्वर्यु समूह अपने से व्यवहित भी होता । हवन करनेवाले ) के अनुमापक होते हैं। अथवा चन्द्र का उदय समुद्र की वृद्धि और कुमुद के विकास का अनुमापक होता है। अथवा शरद् ऋतु में जल की न्यायकन्दली तत्राह-शास्त्रे च कार्यादिग्रहणं निदर्शनार्थं कृतं नावधारणार्थमिति । अस्येदमिति सूत्रे कार्यादीनामुपादानं लिङ्गनिदर्शनार्थं कृतम्, न त्वेतावन्त्येव लिङ्गानीत्यवधारणार्थम् । कथमेतदित्याह-कस्मादिति । उत्तरमाह-व्यतिरेकदर्शनादिति । कार्यादिव्यतिरेकेणाप्यनुमानदर्शनाद् नावधारणार्थम् । (तत्र) यत्र कार्यादीनां व्यतिरेकस्तद्दर्शयति-यथाध्वर्युरों श्रावयन् व्यवहितस्य होतुलिङ्गमिति । अध्वर्युहातारमोम् इत्येवं श्रावयति नान्यमित्येवं यस्य पूर्वमवगतितो फिर अस्येदं कार्यम्' इस सूत्र का विरोध होगा (क्योंकि इस सूत्र के द्वारा कार्यत्व, कारणत्व, संयोग, विरोध एवं समवाय इतने सम्बन्धों को ही हेतु में साध्य के ज्ञापन के सामर्थ्य का प्रयोजक माना गया है दैशिक और कालिक व्याप्ति को नहीं)। इसी प्रश्न का समाधान 'शास्त्रे कार्यादिग्रहणं निदर्शनार्थं कृतम्, नावधारणार्थम्' इस वाक्य के द्वारा किया गया है । अर्थात् वैशेषिक सूत्र रूप शास्त्र में जो कार्यत्वादि' सम्बन्ध का उपादान किया गया है, उसका यह अवधारण रूप अर्थ अभिप्रेत नहीं है कि कथित कार्यत्वादि सम्बन्धों में से ही किसी के रहने से हेतु साध्य का ज्ञापक होता है। किन्तु साध्य के 'व्याप्ति रूप सम्बन्ध से युक्त हेतु ही ज्ञापक होता है' इस नियम के उदाहरण रूप में ही कार्यत्वादि सम्बन्धों का उल्लेख किया गया है कि साध्य के इन कार्यत्वादि सम्बन्धों से युक्त हेतु में साध्य की व्याप्ति रहती है। 'कस्मात्' इस वाक्य के द्वारा प्रश्न किया गया है कि कैसे समझते हैं कि उक्त सूत्र में कार्यादि' का उपादान अवधारण के लिए नहीं है ? 'व्यतिरेकदर्शनात्' इस वाक्य से उक्त प्रश्न का उत्तर दिया गया है । अर्थात कथित कार्यत्वादि सम्बन्ध के न रहने पर भी हेत से साध्य का बोध होते देखा जाता है, अतः समझते हैं कि कार्यत्वादि सम्बन्धों का उल्लेख 'अवधारण' के लिए नहीं है। इन कार्यत्वादि सम्बन्धों के न रहने पर भी जहाँ अनुमिति होती है, उसका प्रदर्शन 'यथाऽध्वयुरों श्रावयन् व्यवहितस्य होतुलिङ्गम्' इस वाक्य के द्वारा किया गया है। जिस पुरुष को यह नियम पहिले से अवगत है कि होता को ही अध्वर्यु ओंकार सुनाते हैं किसी दूसरे को नहीं, वही पुरुष यदि अध्वर्यु को ओंकार का उच्चारण करते हुए For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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