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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् ४८३ न्यायकन्दली चिन्ता स निर्णयार्थमुपदिष्टः प्रकरणसमः' प्रक्रियते प्रस्तूयत इति प्रकरणं पक्षप्रतिपक्षौ, तयोश्चिन्ता विचारः, सा यत्कृता स निर्णयार्थमुपदिष्ट उभयपक्षसाम्यान्न प्रकरणसाम्येऽन्यतरपक्षनिर्णयाय कल्पते । यथा नित्यः शब्दोऽनित्यधर्मानुपलब्धेः, अनित्यः शब्दो नित्यधर्मानुलब्धेरिति शब्दे नित्यानित्यधर्मयोरनुपलम्भान्नित्यानित्यत्वसंशये सति तद्विचारोऽभूत, अन्यतरधर्मग्रहणे तत्त्वनिश्चयाद् विचारस्याप्रवृत्तः । तत्रानित्यधर्मानुपलम्भो नित्यत्वविनिश्चयार्थमुपदिष्टः, नित्यधर्मानुपलम्भोऽनित्यत्वविनिश्चयार्थमुपदिष्टः, नित्यधर्मानुपलम्भं प्रतिपक्षमनतिवर्तमानो न निर्णयाय कल्पते, तत्प्रतिबन्धात् । स चायं संभवत्प्रतिपक्षे धर्मिणि वर्तमान एकस्मिन्नन्ते नियतो न भवतीत्यनैप्रकरणसम हेत्वाभास को सत्ता रहती है। एवं निश्चित विपक्ष में 'कालात्ययापदिष्ट हेत्वाभास की सत्ता रहती है। अभिप्राय यह है कि (न्यायसूत्र में ) प्रकरणसम के लक्षण के लिए यह सूत्र निर्दिष्ट है कि 'यस्मात् प्रकरणचिन्ता स निर्णयार्थमुपदिष्टः प्रकरणसमः !' 'प्रक्रियते प्रस्तूयते इति प्रकरणम्' इस व्युत्पत्ति के अनुसार उपस्थित किये जानेवाले पक्ष और प्रतिपक्ष ये दोनों ही इस सूत्र में प्रयुक्त 'प्रकरण' शब्द के अर्थ हैं । 'तयोश्चिन्ता प्रकरणचिन्ता' अर्थात् कथित पक्ष और प्रतिपक्ष की जो 'चिन्ता' अर्थात् विचार, फलतः संशय जिससे उत्पन्न हो, उन दोनों में से किसी एक पक्ष के निश्चय के लिए प्रयुक्त हेतु ही प्रकरणसम नाम का हेत्वाभास है, क्योंकि वह हेतु दोनों पक्षों के साधन के लिए समान ही है, ( अतः प्रकरणसम है)। उन दोनों में से कोई एक हेतु एक पक्ष का निर्णायक नहीं हो सकता। जैसे कि एक ने यह पक्ष उपस्थित किया कि 'शब्द नित्य है. क्योंकि अनित्य वस्तुओं में रहनेवाले धर्मों की उपलब्धि शब्द में नहीं होती है। दूसरा पक्ष उपस्थित हुआ कि 'शब्द अनित्य है', क्योंकि नित्य पदार्थों में रहनेवाले धर्म की उपलब्धि उसमें नहीं होती। इस प्रकार नित्यों में रहनेवाले धर्म को ज्ञापन करने का सामर्थ्य मान लिया जाय तो फिर साध्य के धर्मी पक्ष में साध्य के अभाव रूप धर्मों एवं अनित्यों में रहनेवाले धर्मों की अनुपलब्धि से शब्द में नित्यत्व और अनिनत्वका संशय उपस्थित होगा। इस संशय के कारण ही 'प्रकरण' का उक्त 'चिन्ता' रूप विचार उपस्थित होता है । उन दोनों में से एक (नित्य या अनित्य ) धर्म का निर्णय रूप विचार उपस्थित होता है। उन दोनों में से एक ( नित्य या अनित्य ) धर्म का निर्णय हो जाने पर तो उक्त विचार की प्रवृत्ति ही नहीं होगी। इन दोनों मे शब्द में नित्यत्व के निश्चय के लिए अनित्य धर्म के अनुपलब्धिरूप हेतु का प्रयोग होता है, एवं शब्द में अनित्यत्व के निश्चय के लिए नित्यधर्मानुपलब्धिरूप हेतु का प्रयोग होता है। इनमें अनित्यधर्मानुपलब्धि रूप हेतु नित्यधर्म के अनुपलब्धिरूप प्रतिपक्ष को पराजित नहीं कर सकता, ( इसी प्रकार नित्यधर्मानुपलब्धिरूप हेतु अनित्यधर्मानुपलब्धिरूप प्रतिपक्ष को भी पराजित नहीं कर सकता), अतः शब्द में नित्यत्व या अनित्यत्व का निर्णय नहीं हो सकता, क्योंकि दोनों ही अपने प्रतिपक्ष के द्वारा प्रतिहत हैं । अतः यह हेतु For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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