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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् ४७१ प्रशस्तपादभाष्यम् तत्र सामान्नविशेषेषु स्वरूपालोचनमात्रं प्रत्यक्ष प्रमाणम् , प्रमेया द्रव्यादयः पदार्थाः, प्रमातात्मा, प्रमितिद्रव्यादिविषयं ज्ञानम् । जिस समय सत्तारूप ( सामान्य ) एवं ( द्रव्यत्वादिरूप ) विशेष विषयों का स्वरूपालोचन (निर्विकल्पक) ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण है ( उस समय ) द्रव्यादि पदार्थ प्रमेय हैं । आत्मा प्रमाता है । द्रव्यादि-विषयक न्यायकन्दली पश्यन्ति ते वियुक्ताः, तेषामभिमुखीभतनिखिलविषयग्रामाणामप्रतिहतकारणगणानां चतुष्टयसन्निकर्षादात्ममनइन्द्रियार्थसन्निकर्षाद् योगजधर्मानुग्रहसहकारितात् तत्सामर्थ्यात् सूक्ष्मेषु मनःपरमाणुप्रभृतिषु व्यवहितेषु नागभुवनादिषु विप्रकृष्टेषु ब्रह्मभुवनादिषु प्रत्यक्षमुत्पद्यते ज्ञानम् ।। एवं तावद्वयाख्यातं प्रत्यक्षम्, सम्प्रति प्रमाणफलं विभजते-तत्र सामान्यविशेषेषु स्वरूपालोचनमात्रं प्रत्यक्षमिति । सामान्यं सत्ता, द्रव्यत्वगुणत्वकर्मत्वादिकं विशेषा व्यक्तयः, तेषु स्वरूपालोचनमात्रं स्वरूपग्रहणमात्र विकल्परहितं प्रमाणम्, प्रमायां साधकतमत्वात् । साधकतमत्वं च तस्मिन् सति प्रमित्सोर्भवत्येवेत्यतिशयः, प्रमातरि प्रमेये च सति प्रमा भवति, न तु भवत्येव, प्रमाणे तु निर्विकल्पके अपने सामने के सभी वस्तुओं और उनके सभी कारणों का एवं 'सूक्ष्म विषयों' का अर्थात् मन एवं परमाणु प्रभृति विषयों का, एवं 'व्यवहित विषयों' का अर्थात् नागलोकादि का, एवं 'विप्रकृष्ट' विषयों का अर्थात् ब्रह्मलोक प्रभृति का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है । इस प्रकार प्रत्यक्ष की व्यारूपा हो गयी। अब 'तत्र सामान्यविशेषेषु स्वरूपालोचनमा प्रत्यक्षम्' इत्यादि से प्रत्यक्षा प्रमाण कौन है ? और उस (करण) का फल कौन है ? इसका विभाग करते हैं । ( उक्त वाक्य के ) 'सामान्य' शब्द से सत्ता, द्रव्यत्व, कर्मत्व प्रभृति को समझना चाहिए । 'विशेष' शब्द से ( उक्त सामान्य के आश्रय) व्यक्तियों को समझना चाहिए। इन सबों में 'स्वरूपालोचनमात्र, अर्थात् स्वरूप का ग्रहणमात्र फलतः निर्विकल्पक ज्ञान ही प्रत्यक्ष प्रमाण है, क्योंकि प्रकृति मे वही (उन विषयों के सविकल्पक ज्ञानरूप ) प्रमा का सबसे निकट साधक (साधकतम ) है। वह साधकतम इस लिए है कि उसके रहने पर उक्त प्रमाज्ञान के इच्छुक पुरुष को उक्त सविकल्पक ज्ञानरूप प्रमा अवश्य होती है। प्रमा के और करणों से उसमें यही 'विशेष' है। प्रमाता, प्रमेय प्रभृति साधनों के रहते हुए भी प्रमा ज्ञान की उत्पत्ति For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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