________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणे प्रत्यक्ष
न्यायकन्दली
दित्यस्यापि प्रतिपादकाभ्युपगतसिद्धाश्रयस्य प्रामाण्योपपत्तिः। सन्दिग्धव्याप्तयश्च प्राणित्वादयः। यदि विवादाध्यासितस्य पुरुषधौरेयस्य प्राणित्वादिकमपि भवेत् सर्वज्ञत्वमपि स्यात्, कैवात्रानुपपत्तिः ? नहि तयोः कश्चिद् विरोधः प्रतीक्षितः, सर्वज्ञताया प्रमाणान्तरागोचरत्वात् । प्राणित्वादेरसर्वज्ञतया सहभावस्तु सन्दिग्धः, किमस्मदादीनां प्राणित्वाद्यनुबन्धिनीयमसर्वज्ञता? कि वा सर्वज्ञानकारणत्वेनावगतस्य योगजधर्मस्याभावकृतेति न शक्यते निर्धारयितुम् । अतोऽनवधारितव्याप्तिकं प्राणित्वादिकम्, न तदनुमानसमर्थम् । अतीन्द्रियज्ञानकारणं योगजो धर्म इति न सिद्धम्, कुतस्तदभावादस्मदादीनामसर्वज्ञताशङ्कयत, अस्माकं तावत्सिद्धं तेनेदमाशङ्कयते ततश्च नोभयसिद्धा व्याप्तिः, कुतोऽनुमानम् ?
युक्तानां प्रत्यक्षं व्याख्याय वियुक्तानां व्याचष्टे-वियुक्तानां पुनरिति । अत्यन्तयोगाभ्यासोपचितधर्मातिशया असमाध्यवस्थिता अपि येऽतीन्द्रियं
इत्यादि अनुमान प्रमाण नहीं हो सकते ) । दूसरी बात यह है कि इस अनुमान के प्राणित्वादि हेतु में व्याप्ति सन्दिग्ध है (निश्चित नहीं, प्राणी सर्वज्ञ न हो, इसका कोई निश्चय नहीं है) । अतः पुरुष श्रेष्ठ ( योगी ) प्राणी भी हो सकते हैं और सर्वज्ञ भी हो सकते हैं, इसमें कौन सी अनुपपत्ति है ? क्योंकि प्राणित्व और सवर्शत्व इन दोनों में कोई परस्पर विरोध पहिले से निश्चित नहीं है। (आपके मत से ) सर्वज्ञता किसी दूसरे प्रमाण से सिद्ध नहीं है। हम लोगों की तरह प्राणियों में जो प्राणित्व और असर्वज्ञत्व दोनों का सहभाव देखा जाता है, उससे यह निश्चय नहीं कर सकते कि हम लोग प्राणी हैं, इसीलिए असर्वज्ञ हैं या हम लोगों में योग से उत्पन्न होनेवाला और सर्वज्ञता को उत्पन्न करनेवाला वह उत्कृष्ट धर्म नहीं है, इस कारण असर्वज्ञ हैं। अतः कथित प्राणित्व हेतु-जिसमें कि असर्वज्ञता की व्याप्ति निश्चित नहीं है--उक्त अनुमान का सम्पादन नहीं कर सकता। 'योग से उत्पन्न धर्म के द्वारा अतीन्द्रिय विषयों का ज्ञान उत्पन्न होता है' यह आपके मत से निश्चित नहीं है, अतः आप किस प्रकार यह आशङ्का करते हैं कि हमलोगों में चूंकि योगज धर्म नहीं है, अतः हम लोग असर्वज्ञ हैं। एवं हम लोगों को यह निश्चित है कि 'योग-जनित धर्म के ज्ञान से अतीन्द्रिय ज्ञान की उत्पत्ति होती है। अतः हम लोगों की यह शङ्का ठीक है कि 'हम लोगों में चूंकि योगज उत्कृष्ट धर्म नहीं है, अतः हम लोग असर्वज्ञ हैं' अतः आपके हेतु में अन्वय और व्यतिरेक दोनों से ही व्याप्ति असिद्ध है, अतः उससे अनुमान किस प्रकार हो सकता है ?
युक्त योगियों के प्रत्यक्ष के बाद 'वियुक्त' योगियों के प्रत्यक्ष की व्याख्या "वियुक्तानां पुनः' इत्यादि ग्रन्थ से की गयी है। वे ही 'वियुक्तयोगी' हैं जो समाधि अवस्था में न होते हुए भी अत्यन्त योगाभ्यास के कारण अतीन्द्रिय वस्तुओं को भी देख सकते हैं। उन्हें 'चतुष्टयसंनिकर्ष' अर्थात् आत्मा, मन, इन्द्रिय और विषय इन चार वस्तुओं के संनिकर्ष से योगजधर्म के अनुग्रह से प्राप्त विशेष सामर्थ्य के द्वारा
For Private And Personal