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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४१२ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे प्रत्यक्ष न्यायकन्दली तस्यार्थापत्तिवदन्यथोपपत्त्या क: परिभवः ? न चेदं पुरुष इव चेतनं यत् प्रयो. जनानुरोधात् प्रवर्तते। यदि त्वेकस्य व्योमप्रदेशस्य संयोगविभागाः क्रियानुमितिहेतवः कल्प्यन्ते ? न शक्यं कल्पयितुम, अतीन्द्रियव्योमाश्रयाणां विभागसंयोगानामप्रत्यक्षत्वात् । भूगोलकप्रदेशविभागसंयोगसन्तानानुमेयत्वे गच्छतो वियति विहङ्गमस्य कर्म दुरधिगमं स्यात् । वियद्विततालोकनिवहविभागसंयोगप्रवाहो यदि तस्य लिङ्गमिष्यते ? अनिच्छतोऽप्यन्धकारे वायुदोषादेकस्मादुपजातावयवकम्पस्य भुजाग्रं मे कम्पते भ्रश्चलतीत्यदृष्टान्तःकरणाधिष्ठितत्वगिन्द्रियजा कर्मबुद्धिरनिबन्धना स्यात् । रात्रौ महामेघान्धकारे क्षणमात्रस्थायिन्यां विद्युति चलतीति प्रत्ययस्य का गतिः ? बुद्धीत्यादि । आत्मसमवेतानां संयुक्तसमवायाद् ग्रहणम् । भावेति । कौन सी बाधा आएगी ? जैसे कि अर्थापत्ति में साध्य की अन्यथा उपपत्ति के द्वारा बाधा आती है। क्योंकि पुरुष की तरह प्रमाण चेतन तो है नहीं कि वह प्रयोजन के अनुसार काम करेगा ( अचेतन वस्तु तो स्वभाव के अनुसार ही काम कर सकती है, अतः साध्य की व्याप्ति से युक्त हेतु पक्ष में साध्य को अवश्य ही उपस्थित करेगा, चाहे उस साध्य का उस पक्ष में दूसरे प्रकार से भी उपपत्ति सम्भव हो)। यदि आकाश प्रदेश के संयोगों और विभागों को ही सभी क्रियाओं की अनुमिति का कारण माने (तो कदाचित उपपत्ति हो सकती है, क्योंकि सभी मुर्त द्रव्यों का संयोग और विभाग आकाशादि मित्यद्रव्यों के साथ अवश्य रहता है)। किन्तु यह कल्पना सम्भव नहीं है। यदि यह कहें कि (प्र.) आकाशादि अतीन्द्रिय हैं अतः उनमें रहनेवाले संयोग और विभाग भी अतीन्द्रिय हो होंगे, अतः उनके द्वारा कर्म का अनुमान यद्यपि नहीं हो सकता, फिर भी भूगोलक में विद्यमान संयोग और विभाग को ही कर्म का अनुमापक लिङ्ग मान सकते हैं ( इससे कर्म की अनुमिति उपपन्न होगी)। (उ०) इस हेतु के द्वारा आकाश में उड़ती हुई पक्षियों में विद्यमान क्रिया की अनुमिति न हो सकेगी, जिससे उक्त पक्षियों की क्रियाओं का ज्ञान ही कठिन हो जाएगा। यदि आकाश में फैले हुए आलोक रूप तेज ( द्रव्य ) में रहनेवाले संयोग को पक्षियों में रहनेवाले कर्म का अनुमापक हेतु मानेंगे तो भी रात में बिना इच्छा के भी वायु के दोष से उत्पन्न होनेवाले कम्प रूप कम की 'भुजाग्नं मे कम्पते, भ्रूश्चलति' इत्यादि आकार की जितनी भी प्रतीतियाँ अदृष्ट एवं अन्तःकरण ( मन ) से अधिष्ठित त्वगिन्द्रिय से ( प्रत्यक्ष रूप ) उत्पन्न होती हैं, उनको विना कारण के ही स्वीकार करना पड़ेगा। एवं रात को बादल घिर जाने के कारण गाढ़ अन्धकार में जब बिजली कौंधती है उस समय उस क्षणिक विद्युत् में जो 'बिजली चलती है' इत्यादि आकार की प्रतीतियाँ होती हैं उनके प्रसङ्ग में ही ( कर्म को प्रत्यक्ष न माननेवाले) क्या उपाय करेंगे? ___'बुद्धि' इत्यादि पङ्क्ति का सार यह है कि आत्मा में समवाय सम्बन्ध से रहनेवालों का संयुक्तसमवाय सम्बन्ध के द्वारा प्रत्यक्ष होता है । 'भाव' इत्यादि पङ्क्ति का For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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