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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४५५ प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम न्यायकन्दली क्षणिकत्वेनासाधारणतया चाशक्यसङ्कतयोः शब्देन संस्रष्टुमयोग्यत्वात्, विषयवाचिना शब्देन विषयिणो ज्ञानस्य तद्वयतिरिक्तस्य व्यपदेशाभावाच्च । अथ मन्यसे विकल्पः दिसंसृष्टार्थविषयः, स चार्थः संसृज्य शब्देन व्यपदिश्यते च । ( यत्र शब्दस्य सङ्कत: ) तत्र च शब्दस्य सङ्कतो यदक्षणिक साधारणं च, न च स्वलक्षणं स्वलक्षणविषयो वा बोधो बोधविषयश्चाकारः साधारणोऽक्षणिकश्च भवति । बोधाकारस्य बाह्यत्वमपि बोधाकारादनन्यदसाधारणमेव । सामान्यं च वस्तुभूतं नास्ति, विचारासहत्वात् । तस्मात् प्रत्येक विकल्पैर्बाह्यत्वेनारोपितेषु स्वाकारेषु परस्परभेदानध्यवसायादन्यव्यावृत्ततयैकत्वे समारोपिते शब्दस्य सङ्कत इति प्रमाणबलादायातमवर्जनीयम् । तत्र चालीके शब्दसंसर्गवति विकल्पः प्रवर्तमानोऽसन्तमर्थ विकल्पयतीति कल्पनाज्ञानमिति । यथोक्तम्अतः प्रतीति और उसका आकार दोनों का शब्द के साथ सङ्केत नहीं हो सकता । अतः प्रतीति में (सङ्केत सम्बन्ध से) शब्द में सम्बद्ध होने की योग्यता नहीं है। एवं घटादि विषयों के वाचक घटादि शब्द के द्वारा घटादि विषयों से भिन्न घटादि अर्थविषयक ज्ञान का प्रतिपादन भी सम्भव नहीं है (क्योंकि विषय और विषयी दोनों परस्पर विरुद्ध स्वभाव के हैं )। यदि यह मानते हों कि (प्र. ) शब्द से सम्बद्ध अर्थ ही सविकल्पक ज्ञान का विषय है और वह अर्थ शब्द के साथ सम्बद्ध होकर ही व्यवहार में आता है । (उ०) शब्द का सङ्केत ( रूप सम्बन्ध ) उसी के साथ होता है जो अक्षणिक ( अनेक क्षणों तक रहनेवाला) तथा साधारण ( अनेक पुरुषों से गृहीत होनेवाला) हो । कोई भी स्वलक्षण ( अर्थात् विज्ञान ) अथवा स्वलक्षण का विषय या उसका आकार बौद्धों के मत से अक्षणिक और साधारण नहीं है । बोध क आकार में ( बाह्यत्व को कल्पना कर उस कल्पित आकार को साधारण मान कर भी काम नहीं चलाया जा सकता क्योंकि ) वह कल्पित बाह्यत्व भी बोध के आकार से अभिन्न होने के कारण असाधारण ही होगा ( साधारण नहीं ) सामान्य नाम का कोई भाव पदार्थ विचार से बहिभूतं होने के कारण है ही नहीं। अतः यही मानना पड़ेगा कि विकल्प (विज्ञान) के द्वारा उसके आकारों में बाह्यत्य को कल्पना की जाती है, किन्तु परस्पर विभिन्न उन आकारों का भेद अज्ञात ही रहता है, इस अज्ञान के कारण ही उन आकारों में एकत्व का आरोप होता है । इन प्रमाणों के बल पर यही कहना पड़ता है कि इसी एकत्व के अधिष्ठानभूत वस्तु में शब्द का सङ्केत है, फलतः जिसमें शब्द का सङ्क। है वह अलीक है, और उसी असत् अर्थ में सविकल्पक ज्ञान प्रवृत्त होकर उसे निश्चित करता है। इस प्रकार ( सविकल्पक) ज्ञान कल्पना रूप है । जैसा कहा गया है कि 'कल्पना रूप ज्ञान में जो रूप बाह्य एक वस्तु की तरह एवं दूसरों से भिन्न की तरह भासित होता है, वह परीक्षा करने पर उन रूपों For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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