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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रकरणम् ] भाषानुवादसहित न्यायकन्दली पुनरस्योपादानं पूर्वस्मान्निर्विकल्पक प्रक्रमादिदं प्रक्रमान्तरमित्यवद्योतनार्थम् । eforever न प्रमाणमिति कथमुच्यते ? प्रतीयते हि घटोऽयमिति ज्ञाने विच्छिन्नः कम्बुग्रीवात्मा सर्वतो व्यावृत्तः पदार्थः । अनर्थजप्रतिभासो विकल्पस्तस्मादर्थाध्यवसायो भ्रान्त इति चेत् ? यथोक्तम् "विकल्पो वस्तुनिर्भासाद् विसंवादादुपप्लवः" इति । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४४६ न प्रवृत्तौ संवादात् । अथानुभवजन्मा विकल्पोsर्थात्मतयारोपितस्वप्रतिभासः स्वलक्षणस्वप्रतिभासयोर्भेदं तिरोधाय स्वलक्षणदेशे पुरुषं प्रवर्तयति संवादयति च मणिप्रभायां मणिबुद्धिवत् पारम्पर्येणार्थप्रतिबन्धादर्थप्राप्तेरिति चेत् ? यदि विकल्पो वस्तु न संस्पृशति, कथं तदात्मतया स्वप्रतिभासमारोपयेत् ? नह्यप्रतीते मरुमरीचिनिचये तदधिकरणो जलसमारोपो दृष्टः । अथ प्रत्यक्षपृष्ठभावी विकल्पः करणव्यापारमुपाददानोऽर्थक्रियासमर्थं वस्तु साक्षात्करोति, अन्यथार्थक्रियार्थिनो विकल्पतः प्रवृत्त्ययोगात् । यथाह-" ततोऽपि विकल्पाद् वस्तुन्येव प्रवृत्तिः" इति । एवं तहि वस्तुनि प्रमाणम्, तत्राविसंवादिप्रतीतिहेतुत्वात् । अथ मन्यसे यः क्षण: प्रत्यक्षेण गृह्यते प्रत्यक्ष हैं । ( निर्विकल्पक ज्ञान के प्रसङ्ग में कथित ) चतुष्टय संनिकर्ष से ही यद्यपि आत्मा और मन के संनिकर्ष का लाभ हो जाता है फिर भी 'यह आरम्भ निर्विकल्पक ज्ञान के उपक्रम से सर्वथा भिन्न है' यह दिखलाने के लिए ही अलग से यहाँ भी आत्मा और मन के संनिकर्ष का उपादान किया गया है । For Private And Personal ( उ० ) किस युक्ति के द्वारा यह कहते हैं कि सविकल्पक ज्ञान अपने विषय का ज्ञापक प्रमाण नहीं है ? क्योंकि 'घटोऽयम्' इस सविकल्पक ज्ञान में पटादि अन्य सभी पदार्थों से भिन्न कम्बुग्रीवादिमत् स्वरूप एक विलक्षण वस्तु भासित होता है । ( प्र० ) जो ज्ञान बिना अर्थ के भी उत्पन्न हो उसे विकल्प' कहते हैं। उनसे जो (सविकल्पक नाम का ) अध्यवसाय उत्पन्न होगा, वह भी अवश्य ही भ्रान्त होगा । जैसा कहा गया है कि विशिष्ट वस्तु को समझाने के कारण ही ज्ञान सविकल्पक होता है । किन्तु उससे होने वाली प्रवृत्तियाँ विफल होती हैं, अतः सविकल्पक ज्ञान भ्रान्तिरूप है । ( उ० ) ऐसी बात नहीं है, क्योंकि सविकल्पक ज्ञान से होनेवाली प्रवृत्तियाँ सफल ( भी ) होती हैं । (प्र०) पहिले ( निर्विकल्पक) अनुभव से उत्पन्न होनेवाले सविकल्पक अनुभव में उसके विषय के अभेद का आरोप होता है, इसके बाद इस आरोप के कारण उसका घटादि विषय रूप से ही प्रतिभास होता है । इस प्रकार सविकल्पक अनुभव में भासित होनेवाले विषयों की प्रवृत्ति सफल होती है किन्तु प्रवृत्ति की इस सफलता से सविकल्पक ज्ञान में प्रामाण्य की सिद्धि नहीं की जा सकती ) | ( उ० ) ( इस प्रसङ्ग में यह पूछना है कि ) अगर सविकल्पक ज्ञान का अपने विषय के साथ सम्बन्ध नहीं प्रतिभास का आरोप ही कैसे कर सकता है ? रहता है तो फिर वह विषय में अपने क्योंकि अज्ञान मरु-मरीचिका में तो जल का ५.७
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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