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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४४७ प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् प्रशस्तपादभाष्यम् सामान्यविशेषद्रव्यगुणकर्मविशेषणापेक्षादात्ममनःसन्निकर्षात् प्रत्यक्ष(२) उद्भूत रूप ( ३ ) प्रकाश एवं ( आत्मा, मन, चक्षुरादि इन्द्रियाँ और घटादि अर्थ इन ) चार वस्तुओं के ( तीन ) संनिकर्ष, इन सबों के द्वारा धर्मादि ( साधारण ) सामग्रियों के रहते हुए द्रव्य के स्वरूप का केवल आलोचन ( निर्विकल्पक ) ज्ञान होता है। आत्मा और मन के संनिकर्ष से ही ( उक्त कारणों के रहते हुए ) द्रव्य का सविकल्पक प्रत्यक्ष होता है, (किन्तु) उसे ( आत्ममनःसंनिकर्ष को) इस कार्य के लिए (द्रव्य के ) सामान्य धर्म, विशेष धर्म, द्रव्य, गुण, कर्म, प्रभृति विशेषणों की भी अपेक्षा होती है। ( जिससे द्रव्य के सविकल्पक ज्ञान के 'यह द्रव्य सत् है, यह पृथिवी है, गाय सींगवाली है, गाय शुक्ल है, गाय जाती है, इत्यादि आकार होते हैं। न्यायकन्दली व्यावृत्तिग्रहणाद् विशेषोऽयमिति विवेकः । निर्विकल्पकदशायां च पिण्डान्तरानुसन्धानाभावात् सामान्यविशेषयोरनुवृत्तिव्यावृत्ती धमौ न गृह्येते, तयोरग्रहणान्न विविच्य ग्रहणम् । स्वरूपग्रहणं तु भवत्येव, तस्यान्यानपेक्षत्वात् । अत एव निर्विकल्पेन सामान्यविशेषस्वलक्षणानां न विशेषणविशेष्यभावानुगमः, तस्य भेदावगतिपूर्वकत्वानिर्विकल्पेन च सामान्यादीनां परस्परभेदानध्यवसायात् । अतः परं से भिन्न वस्तु का ) भान नहीं होता। (उ०, इस प्रसङ्ग में यह कहना है कि ) दूसरे पिण्डों में अनुवृत्ति के ग्रहण से सामान्य का ज्ञान होता है और व्यावृत्ति के ग्रहण से विशेष का भान होता है। जिस समय निर्विकल्पक ज्ञान होता है उस समय दूसरे व्यक्ति का अनुसन्धान नहीं रहता है, अतः सामान्य की अनुवृत्ति और व्यावृत्ति दोनों में से किसी का भी ज्ञान सम्भव नहीं है, अतः अनुवृत्ति और व्यावृत्ति दोनों के अज्ञान के कारण सामान्य और विशेष के विवेक का ज्ञान नहीं हो पाता है। ( व्यक्ति के ) स्वरूप का ग्रहण तो होता ही है, क्योंकि स्वरूपग्रहण में दूसरे की अपेक्षा नहीं है। यही कारण है कि जाति, व्यक्ति एवं स्वलक्षण (व्यक्तिगत असाधारणधर्म तद्वयक्तित्वादि ) ये सभी निर्विकल्पकज्ञान में भासित होने पर भी विशेष्यविशेषणभावापन्न होकर भासित नहीं होते, क्योंकि विशेष्य विशेषणभाव के लिए दोनों में भेद का ज्ञान आवश्यक है। निर्विकल्पक ज्ञान से सामान्यादि के भेद का भान नहीं होता। निर्विकल्पक ज्ञान के बाद 'यह इसका विशेषण है' एवं 'यह इसका विशेष्य है' इत्यादि आकार का बोध सविकल्पक ज्ञान से होता है, क्योंकि विशेष्यविशेषणभाव की प्रतीति इन्द्रिय के द्वारा उसी पुरुष को हो For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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